लगता है बिहार चुनाव आने वाल है इसलिये पीएम मोदी को जून महीने में छठ की याद आई:


चुनाव को देखते हुए मरहम लगाने के अभी और भी प्रयास हो सकते हैं. लेकिन यहाँ गरीबों, श्रमिकों और किसानों के बीच सरकारी राशन वितरण और खाद-पानी आपूर्ति से संबंधित इतनी समस्याएँ हैं, कि थोड़े मुफ़्त अनाज जैसे प्रलोभन शायद ही असरदार हों. नीतीश सरकार ने राज्य में ही मज़दूरों को काम-धंधा उपलब्ध कराने का जो आश्वासन दिया था, वह पूरा होता हुआ नहीं दिख रहा.



प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण अन्न योजना के अवधि-विस्तार का सूत्र आगामी बिहार विधानसभा चुनाव से तो जुड़ ही जाता है. आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय संबोधन में जैसे ही गरीबों/श्रमिकों को और पाँच महीनों तक मफ़्त अनाज देने का ज़िक्र आया, बात समझ में आने लगी. फिर तो प्रधानमंत्री ने बिहार के मशहर पर्व छठ का नाम लेते हुए इस योजना को उस समय तक चलाने की बात कर के मतलब साफ़ कर ही दिया. कोरोना के कारण उपजे हालात से इस गरीब कल्याण योजना को जोड़ना भले ही प्रधानमंत्री का प्रत्यक्ष भाव रहा हो, लेकिन संदेश का लक्ष्य चुनावी भी था. बिहार के गरीब मज़दूरों में लॉकडाउन की वजह से जो पीड़ा पल रही है, उस पर चुनाव को देखते हुए मरहम लगाने के अभी और भी प्रयास हो सकते हैं. लेकिन यहाँ गरीबों, श्रमिकों और किसानों के बीच सरकारी राशन वितरण और खाद-पानी आपूर्ति से संबंधित इतनी समस्याएँ हैं, कि थोड़े मुफ़्त अनाज जैसे प्रलोभन शायद ही असरदार हों. नीतीश सरकार ने राज्य में ही मज़दूरों को काम-धंधा उपलब्ध कराने का जो आश्वासन दिया था, वह पूरा होता हुआ नहीं दिख रहा. इसलिए प्रति परिवार पाँच किलो मुफ़्त अनाज वाली सरकारी मदद श्रमिकों का राज्य से पलायन नहीं रोक पा रही है. वैसे, आगामी पर्व-त्योहारों को देखते हुए जो श्रमिक इस कोरोना काल में बिहार से बाहर नहीं जा कर यहीं रोजीरोटी के जगाड में लग जाएँगे, उन पर जेडीय-बीजेपी की ही नहीं, राष्ट्रीय जनता दल की भी नज़र लगी रहेगी. हालाँकि जैसे-जैसे चुनाव की तारीखें नज़दीक आती जाएँगी, वैसे-वैसे जातीय समीकरण बिठाने से लेकर करण कराने वाले तमाम सियासी तत्व सक्रिय हो कर ज़मीनी समस्याओं को हाशिये पर पहुँचाने लगेंगे. तब सिर्फ कुछ किलो मुफ्त अनाज से काम नहीं चलने वाला. मोटे-मोटे प्रलोभन और तमाम तिकड़म ले कर प्राय: सभी प्रमुख उम्मीदवार चुनावी बाज़ार में उतरेंगे ही.


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