दिल्ली हिंसा: अजीत डोभाल को उतारना अमित शाह की रणनीति है, कमज़ोरी नहीं

देश की राजधानी दिल्ली में हुई हिंसा में तीस से अधिक लोगों की जान जा चुकी है, लेकिन इन मौतों का ज़िम्मेदार कौन है? केंद्रीय गृह मंत्रालय, राज्य सरकार, पुलिस, न्यायपालिका या सबको शरीक-ए-जुर्म माना जाए. इन चार में से किसी एक को दोषी ठहराना सबसे आसान है. ऐसा करना समस्या का कारण खोजने की बजाय किसी एक को दोषी ठहराकर मामले को रफा-दफ़ा करने की कोशिश होगी. क्योंकि पूरे घटनाक्रम में सबकी भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता. पर राजनीति ऐसे नहीं चलती. वह राजनीतिक बलि के लिए बकरा खोजती है. दिल्ली हिंसा: अजीत डोभाल समाधान हैं या गहरी समस्या का संकेत? ऐसे में दिल्ली के दंगों के लिए राजनीति ने बकरा खोज लिया है. उसका नाम है अमित शाह, देश के गृहमंत्री. एक के बाद एक राजनीतिक दल के नेता अमित शाह का इस्तीफ़ा मांग रहे हैं. क्या दिल्ली में जो कुछ हुआ उसके लिए सिर्फ अमित शाह ज़िम्मेदार हैं? एक अजीब का तर्क दिया जा रहा है कि अमित शाह दंगा शांत कराने के लिए सड़क पर क्यों नहीं उतरे. पिछले तिहत्तर साल में देश ने इससे बड़े और भयानक दंगे देखें हैं. ताहिर हुसैन: दंगों के लिए जिम्मेदार या खुद दंगे के शिकार- ग्राउंड रिपोर्ट दिल्ली हिंसा: अजीत डोभाल समाधान हैं या गहरी समस्या का संकेत? देश के बंटवारे के साथ ही साम्प्रदायिक दंगों का नया दौर शुरू हो गया था. तो सरदार पटेल से अमित शाह के पहले तक देश का कौन सा केंद्रीय गृहमंत्री दंगों के दौरान या तत्काल बाद सड़क पर उतरा? फिर अमित शाह से ही यह सवाल क्यों? क्योंकि ऐसा करना एक ख़ास तरह के विमर्श में फिट बैठता है. दरअसल इस तरह के विमर्श के समर्थकों का वास्तविक निशाना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं. अमित शाह तो बहाना हैं. कांग्रेस की कार्यवाहक अध्यक्ष सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति से मिलकर अमित शाह को मंत्रिमंडल से बर्खास्त करने की मांग की है. बुधवार को पार्टी की महामंत्री प्रियंका गांधी ने बताया कि देश के बंटवारे के बाद इंदिरा गांधी मुसलमानों और ईसाइयों के घरों में गई थीं. कहते हैं कि इतिहास अपने को दोहराता है. पहली बार त्रासदी के रूप में और दूसरी बार स्वांग के रूप में. दोनों नेता स्वांग ही कर रही थीं. क्या आज़ादी के बाद हुए भीषण दंगे के लिए तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल को ज़िम्मेदार ठहराते हुए उनका इस्तीफ़ा मांगा था? हिंदुओं से सुनिए, मुसलमानों ने मंदिर को नुकसान पहुंचाने से कैसे बचायाठसे छोड़िए क्या 1984 में सिखों के नरसंहार के बाद कांग्रेस पार्टी ने तत्कालीन गृह मंत्री पीवी नरसिंह राव से इस्तीफ़ा मांगा था? अतीत बड़ा निर्मम होता है. किसी को बख्शता नहीं. मंत्रियों, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री से इस्तीफ़ा मांगना राजनीति का एक कर्मकांड है. जिसके बिना राजनीतिक यज्ञ अधूरा लगता है. अमित शाह के इस्तीफे की मांग को भी इसी संदर्भ में देखना चाहिए. दिल्ली के दंगों के सिलसिले में एक और बात कही जा रही है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल को सड़क पर उतरना पड़ा. इसे केंद्र सरकार की स्थिति को सामान्य बनाने की कोशिश के रूप में देखने की बजाय अमित शाह के क़द को कम करने के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश हो रही है. दिल्ली के दंगों की गंभीरता से किसी को एतराज़ नहीं हो सकता. पर जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने और 35ए को ख़त्म करने बाद स्थिति को सामान्य करने का प्रयास इससे कई गुना बड़ी चुनौती थी. मोदी और शाह ने उस समय भी किसी मंत्री को नहीं डोभाल को ही घाटी की सड़कों पर उतारा था. तब किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि अमित शाह ख़ुद घाटी की सड़कों पर क्यों नहीं उतरे. अब यह सवाल इसलिए उठाया जा रहा है क्योंकि कुछ लोगों की राजनीति को यह मुफीद नज़र आता है. दरअसल अजीत डोभाल के रूप में सरकार के पास एक ऐसा मैनफ्राइडे है जो सुरक्षा, पुलिसिंग, इंटेलिजेंस और सीमित मामलों में राजनीतिक मोर्चे पर भी कारगर साबित हो सकता है. यह नहीं भूलना चाहिए कि डोभाल भारत के अब तक सबसे अव्वल फील्ड इंटेलिजेंस अफ़सरों में से एक शुमार किए जाते हैं. पंजाब में आईबी अधिकारी के रूप में उन्होंने तत्कालीन पुलिस प्रमुख केपीएस गिल के साथ मिलकर आतंकवाद ख़त्म करने के लिए जो किया उसका कोई सानी नहीं है. कांधार मामले में भी वे मुख्य वार्ताकार थे. उनकी इन्हीं सब खूबियों को देखते हुए मनमोहन सिंह सरकार ने उन्हें आईबी का निदेशक बनाया. तो डोभाल को दिल्ली की सड़कों पर उतारना अमित शाह की कमज़ोरी नहीं, सही जगह और सही समय पर सही व्यक्ति को उतारने की रणनीति का हिस्सा है. डोभाल ने लोगों के बीच खुले तौर पर कहा भी कि उन्हें प्रधानमंत्री और गृह मंत्री ने भेजा है. अब सवाल है कि दिल्ली के हालात के लिए ज़िम्मेदार कौन है? दिल्ली हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा कि पुलिस ने प्रोफ़ेशनल ढंग से काम नहीं किया. कार्रवाई के लिए किसी के आदेश के इंतज़ार की ज़रूरत नहीं है. बात बिल्कुल सही है. पर जब पुलिस हर समय अपने कंधे के पीछे देखती रहे कि कार्रवाई करने के बाद उसे अदालत में किस तरह के सवालों का जवाब देना होगा तो कार्रवाई करना आसान नहीं रह जाता. दोनों समुदायों के लोगों ने जिसको जहां मौका मिला दूसरे पर हमला करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. आम आदमी पार्टी की सरकार यह सोचकर घर बैठे तमाशा देखती रही कि जो भी बुरा होगा उसका ठीकरा भाजपा और उसकी सरकार पर फूटेगा. मुख्यमंत्री केजरीवाल अपना एक समय का बयान भूल गए. बलात्कार की घटनाओं पर जब शीला दीक्षित ने कहा कि हम क्या करें, हमारे पास पुलिस नही है. तो केजरीवाल ने दिल्ली के लोगों से पूछा था कि क्या आपको ऐसी मजबूर मुख्यमंत्री चाहिए. अब इतिहास अपने को त्रासदी के रूप में दोहरा रहा है. मस्जिद में तोड़-फोड़ और आगज़नी से इनकार का सच एक चर्चा और चल रही है कि डोभाल का सड़क पर उतरना अमित शाह के प्रति प्रधानमंत्री मोदी का अविश्वास है. पारम्परिक राजनीतिक संबंधों की रोशनी में तो ऐसा ही नज़र आता है. आज़ादी के बाद से राजनीति में दो और जोडियां रही है. नेहरू-सरदार पटेल और वाजपेयी-आडवाणी की. पर मोदी-शाह की जोड़ी की तुलना इन दोनों से नहीं हो सकती. जो दोनों में मतभेद की बात करते हैं वे न तो मोदी को जानते हैं और न ही अमित शाह को. अमित शाह, मोदी के लिए चुनौती नहीं है. बल्कि मोदी, अमित शाह को अपने उत्तराधिकारी के रूप में धीरे-धीरे तैयार कर रहे हैं.


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