मिज़ोरम के वे जायके जो मुंह में पानी ला दें मुर्गे की बांग सुनकर और आसमान में फैली गुलाबी छटा देखकर लगता है कि सुबह हो गई है. घड़ी में अभी 5 ही बजे हैं लेकिन उजाला पूरी तरह फैल चुका है. सिर्फ एक घंटे बाद आइज़ॉल का पूरा पहाड़ी शहर सूरज की रोशनी में नहा जाता है. हवा के अचानक गर्म होने से बादल नीचे की घाटियों की तरफ़ चले जाते हैं. ढलती सर्दियों में यह यहां की आम बात है. हिमालय की तलहटी में तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र के दक्षिण से लेकर बांग्लादेश के मैदानों तक फैले पूरे पूर्वोत्तर में घड़ी की यह विसंगति दैनिक जीवन का हिस्सा है.
दूर का राज्य अपने कई पड़ोसी राज्यों की तरह मिज़ोरम भी 1947 में अंग्रेजों से आज़ादी मिलने के बाद भारत का हिस्सा बना था. लड़ाकू आदिवासी कबीलों के कारण यहां की बीहड़ पहाड़ियां किसी ज़माने में दुर्गम मानी जाती थीं. अंग्रेज़ों ने सैन्य शक्ति आदिवासियों को अधीन किया और फिर उनके धर्मांतरण के लिए ईसाई मिशनरियों को भेजा गया. आज मिज़ोरम की करीब 90 फीसदी आबादी ईसाई है. राजधानी आईजॉल में पहाड़ी ढलानों पर बनी कंक्रीट की इमारतों के साथ चर्च नुकीले मेहराब दिखते हैं.
करी की जगह बाई भारत का यह सुदूर सीमावर्ती क्षेत्र नई दिल्ली के मुकाबले बैंकॉक के ज़्यादा नज़दीक है. करी यहां विदेशी चीज़ है. मिज़ोरम में करी की जगह बाई खायी जाती है जो एक तरह का शोरबा स्टू है. यह मिज़ो खाने की जान है. जिस तरह मसालेदार करी की कई किस्में हैं, उसी तरह बाई में भी विविधता है जो स्थानीय फसलों पर निर्भर करती है.
मांसाहारी आबादी मिज़ो खाना बोटेनिकल इंडेक्स की तरह लग सकता है, लेकिन यहां का कोई भी खाना मांस के बिना पूरा नहीं होता, चाहे वह पोर्क हो चिकन हो या बीफ़ हो. मिज़ोरम के क्लासिक व्यंजनों में शामिल है कोयले की आंच पर सिके पोर्क को सरसों की पत्तियों के साथ उबालकर बनाया गया शोरबा. साचेयर एक चावल आधारित चिकन या पोर्क स्टू है जिसमें तीखेपन के लिए एंथर डाले जाते हैं. जंगली जानवरों के खून और उनके अंगों से बने सॉसेज और चटनी दावतों में परोसी जाती है.
अपने खाने से प्यार ज़्यादातर बाहरी खाना, यहां तक कि भारतीय पूड़ी और रोटी भी या तिब्बती मोमो और नूडल्स भोजन के बीच स्नैक्स के रूप में ही खाये जाते हैं. पूर्वोत्तर का खान-पान ज़्यादातर भारतीयों के लिए अब भी रहस्य बने हुए हैं, विदेशियों की तो छोड़ ही दीजिए. मिज़ो फूड प्रोसेसिंग स्टार्ट-अप जोई की प्रमुख खावल्ज़ामतेई को लगता है कि दक्षिण-पूर्वी एशियाई खाने के दीवाने मिज़ो खाने को पसंद करेंगे.
मिर्च खाने पर जोर मसालों से बचने वाले मिज़ो मिर्च को खूब पसंद करते हैं. मिर्च यहां दक्षिण-पूर्वी एशिया से ज़मीन के रास्ते पहुंचा था. वही मिर्च 16वीं सदी में समुद्र के रास्ते भारतीय बंदरगाहों तक आया. कोई भी खाना कम से कम एक तीखी चटनी के बिना अधूरा होता है. कई बार सिर्फ मिर्च, अदरक और लहसुन पीसकर भी चटनी बना ली जाती है.
मिज़ोरम से बाहर जाएगा मिज़ो खाना? शिक्षा और रोजगार के लिए मिज़ो युवा बाहर जा रहे हैं. उनके साथ मिज़ो खानपान भी बाहर जा रहा है. लेकिन इसकी सामग्रियां बाहर नहीं मिलतीं जिससे मिज़ोरम के लोगों को अक्सर घर के खाने की याद सताने लगती है. अमरीका, ऑस्ट्रेलिया और यूरोप जाने वाले खावल्ज़ामतेई के दोस्त अपने साथ कुछ सामग्रियां ले जाते हैं. उन्होंने कस्टम विभाग में होने वाली दिक्कतों की कहानियां साझा की तभी खावल्ज़ामतेई को सब्जियों को सुखाकर प्रॉसेस करने और पैक करने का बिज़नेस आइडिया आया. उनके ग्राहक ज़्यादातर मिज़ो हैं, लेकिन मांग बढ़ रही है. फार्मेसी पढ़ने के कारण पौधों के औषधीय गुणों को जानने में उनकी दिलचस्पी है. उनको गैस्ट्रोनोमिक और औषधीय गुणों से भरपूर सब्जियों और मसालों को निर्यात करने में अच्छी संभावना दिखती है. इनमें शामिल है कहव्टेबेल (ट्रेवेसिया पामेट) जिसकी कली, फूल और जड़ों में एंटी-ऑक्सीडेंट और जख्मों को भरने का खूबी होती है. सुमैक मसाले मध्य पूर्व के देशों में भी बहत इस्तेमाल होते हैं.
खाने की बदलती आदत मिज़ोरम में लोग घर के बाहर खाना तभी खाते हैं जब बहुत ज़रूरी हो. सफ़र के दौरान सड़क किनारे के ढाबों पर लोग टेबल साझा कर लेते हैं. खाना परोसने में यहां नफासत नहीं होती. चावल की प्लेट सबकी अलग-अलग होती है. दूसरी चीजें टेबल के बीच में रख दी जाती हैं. ये पारंपरिक ढाबे जायकेदार खाना खिलाते हैं और अक्सर चावल के साथ परोसे जाने वाले व्यंजनों की संख्या को लेकर होड़ करते हैं, लेकिन बाहरी लोग यहां से दूर ही रहते हैं. आइज़ॉल में चीजें धीरे-धीरे बदल रही हैं. कई रेस्तरां पहले तिब्बती मोमो और नूडल्स या दक्षिण भारतीय डोसा ही परोसते थे, लेकिन अब वे मिज़ो खाना भी बनाने लगे हैं. 1998 में मिज़ोरम का पहला और इकलौता हवाई अड्डा बनने के बाद यह भारत के प्रमुख शहरों से जुड़ गया. म्यांमार से लगती इसकी सीमा भी खोली गई जिससे दक्षिण-पूर्वी एशिया के सैलानी सड़क के रास्ते मिज़ोरम आ सकते हैं. पूरे पूर्वोत्तर में पर्यटन बढ़ा है. युवाओं को मेहमानवाज़ी का औपचारिक प्रशिक्षण मिल रहा है. उम्मीद है कि मिज़ो खाना यहां के पहाड़ों से निकलेगा, भारतीय मैदानों तक फैलेगा और उन लजीज पकवानों में शामिल होगा जिसके लिए भारत मशहूर है.