रामनामाकंन से आत्मतत्त्व और देवगणों का रुपांतरण हो जाना, इस विषय पर चर्चा की जारही हैं ,

नाम राम कथा 184:-
रामनामोपनिषदनम्।
रामनामाकंनम्
रामनामाकंन से आत्मतत्त्व और देवगणों का रुपांतरण हो जाना, इस विषय पर चर्चा की जारही हैं ,। जिसमें देवगणों का रूपांतरण हमने पढा़ और समझा, तदुपरांत 'आत्मतत्त्व' के रूपांतरण के बारे में कथन चल रहा था ।


रामनामाकंन अर्थात रामनामानुषंधान, रामनामाकंन पुरश्चरण, अर्थात हमारे अन्तरम ' सत्यतत्त्व' के शिक्षोपदेश का आधार भी स्वतः बनता हैं, या कहलो कि, रामनामाकंन परमसत्य का स्वतः आधार हैं। 
कर्म तथा एन्द्रिक जीवन काअध्यात्मतत्त्व की शक्ति के अधीन होना रामनामानुराग से स्वतः होता हैं। 
दुसरे शब्दों में इसे यों कहा या समझा जा सकता हैं कि, अविद्या में निमग्न. जीवात्मा की पराधीन अवस्था से उस परम प्रभुत्वमयी स्थिति में लाने के लिए जीवन और कर्मों के साधन के रूप में उपयोग एवं उपभोग भी रामनामाकंन से स्वतः ही सहज ही होता रहता है।
और रामनामानुराग साधक के अंतर को अध्यात्मज्ञान में प्रतिष्ठित कर परमपुरुष "आत्माराम" की नितान्त आत्म-प्रभुता तथा सर्व-प्रभुता के निकटतर ले आता हैं। 
रामनामाकंन से साधक रामानुरागको उपलब्ध हुआ, गभीर मनोविज्ञानक आत्मानुशाशन तथा आध्यात्मिक अभिप्सा के समस्त आवश्यक तत्त्व ,पराविद्या की प्रणालियों में परमानुशाशन के आदेशोपदेशों में स्वतः ही स्वयं को निर्धारित कर देता हैं। 
"परम- सत्य' है इस अभिप्सा का धाम; और यह "परमसत्य" कोई मात्र बोद्धिक सत्यता नहीं हैं, बल्कि यह रामनामाकंन योग में प्रतिष्ठित साधक के रामनामानुराग से उत्पन्न रामनामामृतपानोपरांत मनुष्य की परमोच्च मानवावस्था है जो सत्य- सत्तामयी है, सत्य- चेतनामयी है, जो सम्यक ज्ञान,सम्यक कर्म, सत्ता के सम्यक आनन्द तथा उस सबसे युक्त हैं जो अज्ञान और अहंकार के मिथ्यात्व के विपरीत हैं। 
परम पूज्य महर्षि का कथन हैं कि, सानुराग , सतत रामनामाकंन साधन से , आत्म-प्रभुता तथा अध्यात्मशक्ति के प्रादुर्भाव के निमित्त कर्मो का तथा आत्म-संयम का प्रयोग स्वतः होते रहने से ,ज्ञान- विज्ञान के भी समस्त अंगों का गभीर अनुसंधान ,रामनामाकंन पुर्श्चरणोंपरांत स्वतः सिद्ध होकर परम सत्य में निष्ठ होने से साधक उस महान आरोहण के योग्य बन जाता है,जिसका मार्ग अनान्य उपनिषदों सहित रामनामोपनिषद ने भी उदघाटित किया हैं।


इस आरोहण का गन्तव्य,इसका उद्देश्य सत्य तथा वृहद सत्ता का वह लोक हैं जिसे वेद सहित संत शास्त्र, योगी एवं स्वयं भगवान शिव ,मनुष्य के अन्तिम लक्ष्य तथा धाम के रूप में ' परम सत्य' कहते हैं। "रामनामःपरमोसत्त्यम्"।। 
"सत्यलोकम्" ।।‌
यहाँ यह सपष्ट कर देता हूं कि, यह जो सत्य लोक, या परमधाम कहा जा रहा हैं वो उस अनन्त दिव्य लोक के रूप में हैं जिसे ब्रह्मलोक कहा गया हैं, यह वेद वर्णित वह दिव्य लोक न नहीं हैं, जिसे स्वर्ग लोक,स्वलोक, कहा गया हैं, और वो भी नहीं जिसे पुराणों का निम्नतर स्वर्ग अथवा निम्नतर ब्रह्मलोक 'भी नहीं जहां जा कर जीवात्मा के पुण्यक्षीण हो जाने के उपरांत उसका पुनः पतन होजाता हैं; बन्धुओं यह तो रामनामामृतपानोपरांत उपलब्ध वह ब्रह्मलोक, वह रामलोक,वह परमसत्यलोक हैं, जो जन्म - मृत्यु के द्वन्द से परे, द्वन्द से सर्वथामुक्त, मुक्त परम उच्चतर ब्रह्मलोक हैं, जिनमें आत्मा ज्ञान और वैराग्य, अथवा ससमर्पित रामनामाकंनोपरांत उत्पन्न रामनामानुरागी रामनामामृतपानोपरांत ,प्रवेश करती हैं। 
अतः यह 'अविद्या' नहीं बल्कि ' विद्या' की स्थिति हैं।
वस्तुतः वह सर्वानन्दमयसत्ता के अस्तित्व में आत्मा का अनन्त आनन्द तथा अस्तित्व हैं; वह उच्चतर स्थिति भी हैं,मनके परे 'परम मन' की ज्योति,प्राण के परे' परम प्राण 'का नित्य प्रभुत्व तथा आनन्द ,इन्द्रियों के परे ' परमेन्द्रिय' की सम्पदाएँ हैं। आत्मा को उस स्थिति में न केवल अपनी विशालता की प्राप्ति होती है अपितु उसे " एकमेवाद्वितीयम" तत्त्व की अनन्तता की उपलब्धि तथा प्राप्ति भी होती है तथा वह उस अमृतत्व में सुदृढ़ प्रतिष्ठा प्राप्त करती हैं क्योंकि उसमें परम 'निरवता' तथा नित्य 'शान्ति' ' नित्य ज्ञान' तथा ' परमानन्द' का सुदृढ़ आधार हैं।
अतः ससंकल्प, ससमर्पण, सतत रामनामाकंन, करना एवं कराना आम मानव का सहज योग बन जाये, सहजभाव बन जाये। 
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जय रामनामाकंनम् ।
रामनामोविजयते" 
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यह एकसो चौरसीवां लेख आपको चौरासी से मुक्त करायें। 
इसमें रामनामाकंन से आत्मतत्त्व और देवगणों के रूपातंरण की प्रक्रिया का सुस्पष्ट उळेख किया गया हैं। 
जय सिया राम।
संस्थापक।