दोनों सदनों में कोरोना संकट पर कोई चर्चा नहीं हुई थी, जबकि कोरोना संक्रमण जनवरी महीने में ही भारत में दस्तक दे चुका था.कोरोना काल में भारत की संसद मौन क्यों है?


इंटरनेशनल पार्लियामेंट्री यूनियन (आईपीयू) एक ऐसी वैश्विक संस्था है, जो दुनिया भर के देशों की संसदों के बीच संवाद और समन्वय का एक मंच है. कोरोना महामारी के इस संकटकाल में दुनिया के तमाम छोटे-बड़े देशों की संसदीय गतिविधियों का ब्योरा इस संस्था की वेबसाइट पर उपलब्ध है. लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र यानी भारत की संसदीय गतिविधि का कोई ब्योरा आपको वहाँ नहीं मिलेगा. ज़ाहिर है, इस कोरोना काल में भारत की संसद पूरी तरह निष्क्रिय रही है और अब भी उसके सक्रिय होने के कोई आसार नहीं दिख रहे हैं. हालाँकि, संसद का बजट सत्र जनवरी में 31 तारीख़ को शुरू हो गया था, जो 23 मार्च तक चला. पूरे सत्र के दौरान 23 बैठकों में कुल 109 घंटे और 23 मिनट कामकाज हआ था.


विपक्षी सांसदों की गुज़ारिश इसके बावजूद मानवीय आपदा और लोकतांत्रिक तकाजे के तहत अपेक्षा की जा रही थी कि सरकार संवैधानिक प्रावधान या तकनीकी पैंच का सहारा नहीं लेगी और संसद का विशेष सत्र बुलाएगी, लेकिन इस दिशा में सरकार ने न तो अपनी ओर से कोई दिलचस्पी दिखाई और न ही इस बारे में विपक्षी सांसदों की मांग को कोई तवज्जो दी. कोई कह सकता है कि सोशल या फिजिकल डिस्टेंसिंग बनाए रखने की ज़रूरत की वजह से संसद का कामकाज चल पाना संभव नहीं है लेकिन यह दलील बेदम है, क्योंकि इसी कोरोना काल में दुनिया के तमाम देशों में सांसदों ने अपने-अपने देश की संसद में अपनी जनता की तकलीफों का मुद्दा उठाया है और उठा रहे हैं.


सरकार की दिलचस्पी संसद अपनी सक्रिय भूमिका निभाए, इसमें सरकार की दिलचस्पी तो नहीं ही है, संसद के दोनों सदनों के मुखिया यानी लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति भी कुछ करते नहीं दिख रहे, यही वजह है कि विभिन्न मंत्रालयों से संबंधित संसदीय समितियों की बैठकें भी नहीं हो पा रही हैं जबकि इन समितियों में सीमित संख्या में ही सदस्य होते हैं. संसद के प्रति सरकार यानी प्रधानमंत्री की उदासीनता को देखते हुए सत्तारूढ़ दल के सांसदों ने भी अपनी अध्यक्षता वाली संसदीय समितियों की बैठक आयोजित करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. गौरतलब है कि भारत में विभिन्न मंत्रालयों से संबंधित 24 स्थायी संसदीय समितियाँ हैं, जिनमें से इस समय 20 समितियों के अध्यक्ष सत्तारूढ़ दल के सांसद हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश भर के मुख्यमंत्रियों के साथ वीडियो कांफ्रेंसिंग के ज़रिए बैठकें की हैं, पीएम मोदी की पहल पर ही दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) के सदस्य देशों के प्रमुखों की वर्चुअल मीटिंग हो चुकी है, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट वीडियो कांफ्रेंसिंग के ज़रिए मामलों की सुनवाई कर रहे हैं, देश के कैबिनेट सचिव अक्सर राज्यों के मुख्य सचिवों के साथ वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए मीटिंग करते ही हैं, तो फिर संसदीय समिति की बैठक वीडियो कांफ्रेंसिंग के ज़रिए क्यों नहीं हो सकती?


कोरोना के ख़िलाफ़ जंग में जनप्रतिनिधि कहाँ? एक तरफ सरकार ऐप बनाकर देश के हर नागरिक को उसे डाउनलोड करने का दबाव बना रही है, ताकि तकनीक के ज़रिए कोविड19 से लड़ा जा सके और दूसरी ओर संसद में तकनीक का इस्तेमाल कर समितियों की बैठक करने से मना किया जा रहा है. यह स्थिति तब है जब प्रधानमंत्री जीवन के हर क्षेत्र में तकनीक के अधिक से अधिक इस्तेमाल का आग्रह करते हैं. कुल मिलाकर पिछले दो महीने से देश में जो कुछ हो रहा है, उसका फैसला सिर्फ और सिर्फ सरकार और नौकरशाह कर रहे हैं. इतनी बड़ी वैश्विक मानवीय त्रासदी के दौरान देश की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था और सबसे बड़े राजनीतिक मंच यानी संसद को भूमिकाहीन बना दिए जाने की अभूतपूर्व घटना भारत में हो रही है.


अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण मसलन, पिछले दिनों एक-एक करके छह राज्य सरकारों ने अपने यहाँ श्रम कानूनों को तीन साल के लिए स्थगित करने का आननफानन में ऐलान कर दिया. ऐसा सिर्फ भाजपा शासित राज्यों ने ही नहीं बल्कि कांग्रेस शासित राज्यों ने भी किया जबकि यह फैसला राज्य सरकारें नहीं कर सकती, क्योंकि यह विषय संविधान की समवर्ती सूची में है, लिहाजा श्रम कानूनों के मामले में ऐसा कोई फैसला संसद की मंजूरी के बगैर हो ही नहीं सकता. बजट और वित्त विधेयक के पारित होने से सरकार को यही मंजूरी मिलती है इसलिए अभी कोई नहीं जानता, यहाँ तक कि शायद कैबिनेट भी नहीं कि 20 लाख करोड़ रुपये के पैकेज में से जो 2 लाख करोड़ रुपए वास्तविक राहत के रूप में तात्कालिक तौर पर ख़र्च हुए हैं, वे 23 मार्च को पारित हुए मौजूदा बजटीय प्रावधानों के अतिरिक्त हैं अथवा उसके लिए अन्य मदों के ख़र्च में कटौती की गई है.


संसद - सुख दुख का आईना किसी भी लोकतंत्र में संसद और विधानसभाएं जनता के सुख-दुख का आईना होती हैं, लेकिन कोरोना काल में इस आईने पर पर्दा इला हुआ है. लॉकडाउन लागू होने के बाद देश भर की सड़कों पर बिखरे तरह-तरह के हज़ारों दर्दनाक दृश्यों, घरों में कैद गरीब लोगों की दुश्वारियों और करोड़ों किसानों की तकलीफ़ों को सुनने के लिए भी देश की सबसे बड़ी पंचायत नहीं बैठी. जनता के चुने हुए नुमाइंदों को मौक़ा ही नहीं मिल रहा है कि वे अपने-अपने इलाके की ज़मीनी हक़ीकत और लोगों की तकलीफ़ों से प्रधानमंत्री और उनकी सरकार को अवगत करा सकें या उनसे जवाब-तलब कर सकें. सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है कि वह इस समय सरकार के कामकाज में कोई दखल देना उचित नहीं समझता. इस प्रकार भारत दुनिया का शायद एकमात्र ऐसा लोकतांत्रिक देश बन गया, जहाँ कोरोना के संकटकाल में व्यवस्था तंत्र की सारी शक्तियां कार्यपालिका यानी सरकार ने अघोषित रूप से अपने हाथों में ले ली है. मशहूर इतिहासकार और दार्शनिक युवाल नोहा हरारी ने महज दो महीने पहले ही अपने एक लेख के जरिए भविष्यवाणी की थी कि कोरोना महामारी के चलते दुनिया भर में लोकतंत्र सिकुड़ेगा, और सरकारें अपने आपको सर्वशक्तिमान बनाने के लिए नए-नए रास्ते अपनाएँगी, क्या यह उनकी इस भविष्यवाणी के सच साबित होने की शुरुआत है?


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