नेपाल और भारत पास होकर भी इतने दूर होते जा रहे


 


लोकप्रिय चुनावी राजनीति में कोई भी प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति देश की जनभावना की उपेक्षा नहीं करता है. जम्मू-कश्मीर के विभाजन के बाद भारत ने पिछले साल नवंबर में नया नक्शा जारी किया तो नेपाल के लोगों ने उस नक्शे में कालापानी इलाके को देख विरोध जताया. नेपाल के लोगों ने अपनी सरकार के ख़िलाफ़ भी गुस्सा ज़ाहिर किया. पूरे विवाद में नेपाल की सरकार को सामने आना पड़ा और भारत के नक्शे पर एतराज जताया. तब से ही नेपाल की सरकार पर दबाव था कि वो भी कुछ करे. नेपाल के प्रधानमंत्री ओली के बारे में कहा जाता है कि वो विदेशी संबंधों में अपने दो बड़े पड़ोसी भारत और चीन के बीच संतुलन बनाकर रखना चाहते हैं. ओली कभी भारत समर्थक कहे जाते थे. ऐसा माना जाता है कि नेपाल की राजनीति में उनका रुख भारत के पक्ष में कभी हआ करता था. और नेपाल के बीच 1950 में हुए पीस एंड फ्रेंडशिप संधि को लेकर ओली सख्त रहे हैं. उनका कहना है कि संधि नेपाल के हक़ में नहीं है. इस संधि के ख़िलाफ़ ओली नेपाल के चुनावी अभियानों में भी बोल चुके हैं. ओली चाहते हैं कि भारत के साथ यह संधि ख़त्म हो.


प्रचंड की राजनीति 2008 में प्रचंड ने प्रधानमंत्री बनने के बाद उस वक़्त दिल्ली को चौंका दिया था जब वह सबसे पहले दिल्ली का दौरा करने की स्थापित परंपरा को तोड़कर चीन चले गए थे. नेपाल ने पिछले हफ्ते अपना आधिकारिक नक्शा जारी किया है जिसमें लिप्लेख, कालापानी और लिंपियाधुरा इलाक़ों को नेपाल की पश्चिमी सीमा के भीतर दिखाया है.नेपाल के ज़्यादातर लोगों ने इसे सरकार के एक मज़बूत क़दम के तौर पर देखा है. हालांकि, ओली के आलोचक इसे देश में कोविड19 के ख़राब प्रबंधन के लिए हो रही उनकी आलोचना से ध्यान भटकाने की कोशिश के रूप में देख रहे हैं. सितंबर 2015 में ओली के भारत के खिलाफ़ रुख अख्तियार करने की वजह अघोषित नाकाबंदी भी थी. यह वह वक़्त था जब नेपाल में महज चार महीने पहले एक बड़ा भूकंप आया था. उस वक़्त भारत ने नेपाल के नया संविधान लागू करने को लेकर अपनी नाराजगी जाहिर की थी. ऐसा इस वजह से था क्योंकि भारत को लग रहा था नेपाल ने नए संविधान में दक्षिणी नेपाल की तराई की पार्टियों की कई मांगों को अनसुना कर दिया था.



इसके बाद तराई के नेताओं और एक्टिविस्ट्स ने पूर्व से पश्चिम तक भारत-नेपाल की सीमा को बंद कर दिया. भारत मज़बूती से इन विरोधी नेताओं के साथ खड़ा रहा था. नेपाल ने आरोप लगाया था कि भारत नेपाल की सीमाओं की नाकाबंदी कर रहा है. हालांकि, भारत लगातार इन आरोपों को खारिज करता रहा था. उस वक़्त नेपाल में ओली की अगुवाई वाली बहुपक्षीय सरकार ने भी झुकने से इनकार कर दिया था और भारत के ख़िलाफ़ एक सख़्त रुख बनाए रखा. भारत के सामने झुकने के बजाय नेपाल ने पेट्रोलियम समेत दूसरी आपूर्तियों के लिए अपने पड़ोसी मुल्क चीन का सहारा लेना उचित समझा. कुकिंग गैस और ईंधन की कमी के चलते नेपाल के लोगों को बड़ी मुश्किल हई थीं. नेपाल ने ऐसे में चीन के साथ एक पूरी तरह से नई ट्रेड और ट्रांजिट डील कर दी. दूसरी ओर, नेपाल भारत से जुड़ने वाले दक्षिणी तराई के जिलों के हज़ारों लोगों को नागरिकता देने के लिए भी राज़ी नहीं था. लेकिन, ये सभी मामले तब जाकर शांत हो गए जब नेपाल के किंग बीरेंद्र ने अप्रैल 1990 में पहले जन आंदोलन के सामने झुकते हुए राजनीतिक पार्टियों पर 30 साल पुरानी पाबंदी को हटा लिया था. इसके बाद नई राष्ट्रीय एकता सरकार ने भारत के साथ एक नई डील पर दस्तखत किए थे.



भारत के पास क्या विकल्प हैं? तीस साल बाद और नेपाल के तराई को लेकर भारत के साथ हुए तनाव के पाँच साल बाद दोनों देश एक बार फिर से आमने-सामने आ गए हैं. लिपुलेख विवाद ऐसे वक़्त पर सामने आया है जब हाल के दौर में कई उच्च-स्तरीय दौरों और लेन देन के ज़रिए दिल्ली-काठमांडू गलबहियां करते नज़र आने लगे थे. लिपुलेख विवाद के बाद नेपाल और भारत दोनों जगहों पर विदेश नीति के जानकारों ने दोनों देशों के नेताओं से तत्काल एक कूटनीतिक संवाद शुरू करने का अनुरोध किया है. कोविड-19 के चलते भारत ने कूटनीतिक पहल को होल्ड पर डाल दिया था. इन जानकारों का कहना है कि बतौर एक बड़े और शक्तिशाली पड़ोसी के नाते भारत को इस विवाद को ख़त्म करने की दिशा में पहल करनी चाहिए. इसके लिए नेपाल भी राजी दिखाई दे रहा है. नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप ज्ञावली कह चुके हैं कि नदी सीमा विवाद को सुलझाने के लिए द्विपक्षीय चर्चा शुरू करने के लिए नेपाली पक्ष तैयार है. उन्होंने कांतीपुर दैनिक से कहा, "अगर भारत ने नेपाल के पिछले अनुरोध (नवंबर 2019 के भारत के मैप के तुरंत बाद) पर गौर किया होता तो चीजें अब तक एक अच्छे मुकाम पर पहुंच चुकी होती." विशेषज्ञों का कहना है कि नेपाल और भारत के बीच सदियों पुराने रिश्तों से दोनों देशों को फायदा हुआ है. खुले बॉर्डर पर बिना वीज़ा के आवाजाही करने के अपने नफे-नुकसान हैं. लेकिन, इसमें अच्छी बात यह है कि बड़े स्तर पर आसानी से सीमा पार आवाजाही की इजाज़त से दोनों देशों के तीर्थयात्रियों, पर्यटकों और प्रवासी मजदूरों को बड़ा फायदा हुआ है.कोविड-19 ने दोनों देशों की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह से प्रभावित किया है. दोनों देशों में प्रवासी मज़दूर अपनी-अपनी जगह पर फंस गए हैं. इसके अलावा मोदी और ओली के बीच हाल में फ़ोन पर हुई बातचीत के बाद कई मज़दूर सीमा के दोनों तरफ़ बनाए गए अस्थायी क्वारंटीन सेंटरों में भी रह रहे हैं. नेपाल के प्रधानमंत्री ओली ने इसी हफ़्ते संसद के निचले सदन प्रतिनिधि सभा में कहा था, "नेपाल और भारत के बेहतरीन रिश्ते रहे हैं. ये विशिष्ट और अच्छे हैं. हां, कुछ सीमाई मसलों को लेकर मुश्किलें भी हैं, लेकिन इन्हें सुलझाना नामुमकिन नहीं है. हम इन्हें हल करना चाहते हैं और अपने रिश्तों को और भी बेहतर बनाना चाहते हैं." लेकिन, बड़ा सवाल अब भी कायम है - क्या भारत में मोदी सरकार और नेपाल की ओली सरकार ऐसा करने के लिए तैयार है? अगर ऐसा है तो आख़िर यह राजनयिक बातचीत कब शुरू होगी?


 


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