कांग्रेस नए अध्यक्ष को चुनने की चुनौती का सामने करने के लिए बार-बार गांधी परिवार की ओर देखने पर मजबूर दिखती है. ऐसा क्यों

कांग्रेस के नेता शशि थरूर ने समाचार एजेंसी पीटीआई को दिए इंटरव्यू में इस फैसले पर सवाल उठाते हुए कहा है कि लोगों में पार्टी के 'दिशाहीन' और 'लक्ष्यहीन' होने की बढ़ती धारणा को ख़त्म करने के लिए ज़रूरी है कि पार्टी नए अध्यक्ष को ढूंढने की प्रक्रिया तेज़ करे.


लंबे समय से देश की सबसे पुरानी पार्टी और इस समय मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस का पुराना जनाधार कई वर्षों में काफ़ी खिसका है. पिछले दो लोकसभा चुनावों में पार्टी की बड़ी हार हुई है और पहली बार 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में उसे सौ से कम सीटें आई.


चुनावी राजनीति के दीगर पार्टी के अंदर नेतृत्व का संकट भी कायम है और इस सवाल को लेकर पार्टी लगातार चुनौतियों का सामना कर रही है. राहुल गांधी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था.


उन्होंने अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देते हुए लिखा था, "अध्यक्ष के नाते हार के लिए मैं ज़िम्मेदार हूँ. इसलिए अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे रहा हूँ. पार्टी को जहाँ भी मेरी ज़रूरत पड़ेगी, मैं मौजूद रहँगा."


उस वक़्त उन्होंने कहा था, "एक महीने पहले ही नए अध्यक्ष का चुनाव हो जाना चाहिए था. बिना देर किए हुए नए अध्यक्ष का चुनाव जल्द हो. मैं इस प्रक्रिया में कहीं नहीं हूँ. मैंने पहले ही अपना इस्तीफा सौंप दिया है और अब मैं पार्टी अध्यक्ष नहीं हूँ. सीडब्लूसी (कांग्रेस वर्किंग कमेटी) को जल्द से जल्द बैठक बुलाकर इस पर फैसला करना चाहिए."



2019 में तब सोनिया गांधी को एक साल के लिए कांग्रेस का अंतरिम अध्यक्ष बनाया गया था. उन्हें अब दोबारा से एक साल पूरे होने पर इस साल भी पार्टी का अंतरिम अध्यक्ष बनाए रखा गया है क्योंकि कांग्रेस पार्टी को कोई पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं मिल पाया है.


कांग्रेस के नेता शशि थरूर ने समाचार एजेंसी पीटीआई को दिए इंटरव्यू में इस फैसले पर सवाल उठाते हुए कहा है कि लोगों में पार्टी के 'दिशाहीन और लक्ष्यहीन होने की बढ़ती धारणा को ख़त्म करने के लिए ज़रूरी है कि पार्टी नए अध्यक्ष को ढूंढने की प्रक्रिया तेज़ करे.


उन्होंने कहा कि पार्टी को एक बार फिर से नेतृत्व देने का साहस, क्षमता और योग्यता राहुल गांधी के पास है, लेकिन अगर वो आगे नहीं आना चाहते, तो पार्टी को नए अध्यक्ष चुनने की दिशा में ज़रूर आगे बढ़ना चाहिए. शशि थरूर के इस बयान से गांधी परिवार के बाहर से किसी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने की संभावनाओं पर नए सिरे से बहस होती


शशि थरूर के इस बयान से गांधी परिवार के बाहर से किसी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने की संभावनाओं पर नए सिरे से बहस होती दिख रही है.


इससे सिलसिले में कई और सवाल उठते है. पहला सवाल तो यही है कि कांग्रेस नए अध्यक्ष को चुनने की चुनौती का सामने करने के लिए बार-बार गांधी परिवार की ओर देखने पर मजबूर दिखती है. ऐसा क्यों है?


और दूसरा सवाल है कि गांधी परिवार के भरोसे क्या अब कांग्रेस की राजनीति अपनी पुरानी खोई हुई साख पा सकती है? . बाबरी मस्जिद का ताला राजीव गांधी ने किसी डील के तहत खलवाया था?


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गांधी परिवार मजबूरी या मज़बूती


वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई इस सवाल पर कहते हैं, "किसी भी संगठन में सबकी ज़िम्मेदारी होती है. यह बात सही है कि कांग्रेस में गांधी परिवार की ज़्यादा भूमिका है. ऐतिहासिक रूप से इसका एक आज़ादी के समय का मॉडल रहा है. समस्या यह है कि लोग सवाल तो करते हैं लेकिन कोई पहल नहीं करता है. ऐसे अनेक प्रावधान है कांग्रेस पार्टी के संविधान के अंदर जिसका इस्तेमाल किया जा सकता है. जैसे हस्ताक्षर अभियान चलाना या फिर ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी की बैठक बुलाना. अर्जुन सिंह ने नरसिम्हा राव के खिलाफ़ पार्टी के अंदर में एक बार मुहिम छेड़ी थी. उस वक़्त उन्होंने इसी हस्ताक्षर अभियान का इस्तेमाल करके ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी का अधिवेशन बुलाया था."


वो आगे कहते हैं, "सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष बनी थी, क्योंकि राहुल गांधी खुला हाथ चाहते हैं जो उन्हें उस तरह से पुराने नेताओं की वजह से नहीं मिल पा रहा है. राहुल गांधी की अध्यक्ष नहीं बनने की अपनी वजहें हैं, लेकिन यह संगठन का दायित्व बनता है कि वो अपना अध्यक्ष खोजे और बनाए."


वहीं वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी इस सवाल पर कहती हैं, "गांधी परिवार के बिना भी नहीं चलता और उनके साथ भी नहीं चल पा रहा है. कांग्रेस का मामला अभी बुरी तरह से फंसा हुआ है. सोनिया गांधी का फिर से अंतरिम अध्यक्ष बनना तो तय ही था क्योंकि और कोई सामने ही नहीं आ रहा है."


वो आगे बताती हैं, "दूसरी बात यह कि अगर गांधी परिवार की मर्जी के खिलाफ़ कोई आगे बढ़ने की कोशिश करता है तो फिर पार्टी के टूटने का ख़तरा है. ऐसी स्थिति में पार्टी का फिर से उभार नहीं हो पा रहा है. सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष हैं. वो बीमार भी हैं. राहुल गांधी ज़िम्मेदारी लेने के लिए तैयार नहीं है. वो चाहते हैं कि उन्हें निर्णय लेने के मामले में पूरी छूट मिले. उन्हें लगता है कि वो बन भी जाएँगे तो क्या होगा, जो पुराने नेता हैं वो उन्हें कुछ करने ही नहीं देंगे. प्रियंका गांधी को आगे लाया नहीं जा रहा है, क्योंकि सोनिया चाहती हैं कि राहुल गांधी सामने आए. इसलिए यह एक अजीबोगरीब स्थिति बनी हुई है."


कांग्रेस का वास्तविक संकट अब सवाल उठता है कि कांग्रेस का वास्तविक संकट नेतृत्व को लेकर है या फिर उसकी राजनीति पूरी तरह से हाशिए पर चली गई है और भारतीय राजनीति में उसके लिए अब कोई जगह नहीं बची या फिर बहुत कम बची है?


नीरजा चौधरी इस सवाल पर कहती हैं, "कांग्रेस को आज की तारीख़ में पता ही नहीं कि वो किस बात को लेकर स्टैंड कर रही है. ना उनके पास वैकल्पिक कोई विजन है, ना रणनीति है और ना ही कोई नेतृत्व है. तीनों ही मोर्चे पर कांग्रेस नाकाम है. आज नौजवान कांग्रेस में हताश हो रहा है. सचिन ने बगावत की और ज्योतिरादित्य सिंधिया ने तो पार्टी ही छोड़ दी. उन्हें लगता है कि नहीं कांग्रेस का फिर से उभार हो सकता है. इस तरह की मायूसी के माहौल में लोग अलग-अलग जगह ढूँढने लगते हैं. अगर पिछले साल राहल गांधी ने कहा कि गांधी परिवार से किसी को लीडरशीप के लिए नहीं लेना चाहिए तो फिर कुछ समय के लिए छोड़ देना चाहिए."


वो आगे कहते हैं, "आर्थिक नीति, विदेश नीति और रक्षा नीति इन सब मामलों पर कांग्रेस की एक समझ है और लंबा अनुभव है. किसी भी राजनीतिक दल के पास इतना लंबा अनुभव नहीं है. बाक़ी तो सब क्षेत्रीय पार्टी हैं."


बीजेपी के मोदी काल का क्या विकल्प है कांग्रेस के पास?


इस सवाल पर रशीद किदवई का मानना है, "राहुल गांधी में उम्मीद नज़र आती है क्योंकि वो वास्तव में नरेंद्र मोदी का एक विकल्प पेश करते हैं. मोदी की हर नीति को राहुल गांधी चुनौती देते नज़र आते हैं. लेकिन उनकी अपेक्षा है कि उन्हें काम करने की छूट मिले और अपने पसंद के आदमी को नियुक्त करने की आज़ादी मिले. कांग्रेस में इसका फ़िलहाल अभाव है. वहाँ अभी भी पुराने नेताओं का दबदबा राहुल गांधी से ज़्यादा है. सोनिया गांधी के रहते ये नेता अपनी मनमानी करते हैं. अब देखिए राहुल गांधी चाहते थे कि सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया को मुख्यमंत्री बना दिया जाए लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उसकी वजह से अब पार्टी में राजस्थान और मध्य प्रदेश में खींचतान हुई."


पार्टी में सुधार को लेकर कोशिशें


इतनी बुरी स्थिति में पहुँचने के बाद भी क्या कांग्रेस के अंदर किसी भी तरह की किसी सुधार की कोशिश नहीं हो रही है?


रशीद किदवई बताते हैं, "सालों से पार्टी में सुधार को लेकर कई बार अंदरुनी समितियों ने अपनी-अपनी रिपोर्ट्स सौंपी हैं. आखिरी कमेटी 2006-08 में 'फ्यूचर चैलेंजेज' युप नाम से बनी थी. इसमें मणिशंकर अय्यर, दिग्विजय सिंह, जयराम रमेश जैसे क़रीब 8-9 नेता थे. यह बात अटपटी लग सकती है कि इसमें राहुल गांधी भी एक सदस्य थे. इस कमेटी ने आगे की चुनौतियों और रणनीति को लेकर रिपोर्ट पेश की थी. इसके अलावा संगमा रिपोर्ट, सैम पित्रोदा की रिपोर्ट और एके एंटनी की 3-4 रिपोर्ट्स मौजूद हैं. इसलिए पार्टी सुधार को लेकर रिपोर्ट्स तो कई सारी हैं."


नीरजा चौधरी इस पर अपनी राय जताती हैं कि पार्टी सुधार को लेकर कई शानदार रिपोर्ट्स हैं. इसलिए पार्टी में क्या होना चाहिए इसे लेकर सुझावों या फिर रिपोर्ट्स की कमी नहीं है. कमी है तो सिर्फ़ इच्छाशक्ति की.



कांग्रेस मुक्त भारत नारे की हक़ीक़त


लंबे समय से गांधी परिवार कांग्रेस की राजनीति की धुरी है. माना जाता रहा है कि गांधी परिवार के नाम के सहारे ही कांग्रेस के अंदर की हर विचारधारा एकजुट हो पाती है और पार्टी क़ायम रह पाती है. तो क्या फिर गांधी परिवार के बिना कांग्रेस का अस्तित्व ज्यादा दिनों तक टिक पाएगा?


इस सवाल पर नीरजा चौधरी कहती हैं, "नरेंद्र मोदी का जो यह कहना है कि वो कांग्रेस मुक्त भारत चाहते हैं, दरअसल वो गांधी परिवार मुक्त कांग्रेस की बात करते हैं. यह बात कांग्रेस के लोगों को मालूम है कि जहाँ गांधी परिवार हटा, उनकी पार्टी को आसानी से ख़त्म किया जा सकेगा. यह एक डर तो है और बिल्कुल वाजिब डर भी है. लेकिन फिर भी आप हाथ पर हाथ रख कर नहीं बैठ सकते ना. आपको कोई रास्ता तो निकालना होगा क्योंकि इस तरह से अगर पार्टी चलती रही तो भी यह देर-सबेर ख़त्म हो जाएगी."


वो आगे कहती हैं कि ऐसा ही चलता रहा तो बीजेपी के विरोध की वैकल्पिक राजनीति लंबे समय तक राजनीतिक शून्यता का शिकार रहेगी.


 


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