रामनामाकंन करने का तात्पर्य, मात्र मनोकामनाएं पूर्ण करना ही नहीं हैं! बल्कि रामनामाकंन का मूल उद्देश्य स्वःलोक को उपलब्ध होना हैं। 

नाम राम कथा 176
रामनामोपनिषद् , 
के भाग पढ़ कर हमें यह तो अनुभव हो ही गया कि, रामनामाकंन करने का तात्पर्य, मात्र मनोकामनाएं पूर्ण करना ही नहीं हैं! बल्कि रामनामाकंन का मूल उद्देश्य स्वःलोक को उपलब्ध होना हैं। 
यह भिन्न बात हैं कि, रामनामाकंन को अपनाने के बाद आवश्यकताओं की पूर्ति स्वतः होने लगती हैं, पर रामनामाकंन योगी उसके लिए अस्तित्व का आभार व्यक्त करते हुए आगे बढ़ जाता हैं। 
जिसने, भी रामनाम का महत्व जान लिया या अनुभव कर लिया हैं, वो ऐसा न तो किसी से कहेगा और न ही किसी को कहने के लिए अपनी और से प्रेरित करेगा, ‌कि, राम का नाम लेलो तुम्हारे सारे लौकिक कार्य पूर्ण हो जायेगें। 
अर्द्धज्ञानता का द्योतक हैं या यो कहलो कि अज्ञानता ही हैं कि, कोई किसी को रामनामाकंन के बदले कुछ लौकिक वस्तुओं की इच्छा पूर्ति के लिए व्याख्यान करें,या प्रेरित करें।


संत शिरोमणि तुलसीदास जी ने तो इसको ऎसे कह कर समझाया कि, 
कांच किरीट बदले ते लेहीं।
कर ते डारी परस मणी देंहीं।।
राम का नाम, जिस एक नाम के लेने से ब्रह्माण्ड के समस्त पापों के समुहों का गलन हो जाता हों ? जिस राम नाम को एक बार अंतर से पुकार लेने पर जीवात्मा स्वःलोक को उपलब्ध हो जाता हों, ? उसके बदले कोई लौकिक वस्तु की चाहना ? मात्र अज्ञानता ही हैं। 
हां हमने भी रामनामाकंन पुस्तिका पर लिखा हैं कि, "इस दरबार में जो चाहोगे सो पावोगे।"
यह मात्र ध्यानाकर्षण हैं। यह मात्र बच्चे को प्रथम बार स्कूल भेजने के लिए दिखाई जाने वाली "लोलीपोप "हैं। परंतु यह कोई लौकिक वस्तुओं की प्राप्ति के निमित्त इंगित करना नहीं हैं, यह परम अर्थ की प्राप्ति हेतु दावा हैं। 
व्यक्ति मानव तन में आकर मानव बन जाने के बाद क्या चाहता होगा ? कि,मुझे भगवान मिल जायें ! तो यह उसीका दावा हैं कि, जो चाहोगे , तो पावोगे। यह उस परमावस्था,परमधाम,परमात्मा,को पा सकने का दावा हैं। 
हां भले कोई लौकिक कामनाओं से युक्त होकर भी रामनामाकंन में संलग्न होता हों, परंतु जैसे ही उसका पुरश्चरण आगे बढ़ने लगेगा, उसके अंतर से मनोकामनाओं का स्वतः अंत होता जायेगा। 
रामनामाकंन करने से मानव रामनामाकंनयोग को उपलब्ध होता हैं, रामनामाकंन योग से रामनामानुराग उत्पन्न होता हैं, रामनामानुराग से सहज प्रेम को उपलब्ध होता हैं, और सहजप्रेम में स्थित हुआ जिवात्मा स्वःलोक को उपलब्ध हुए जीवात्मा परमात्मा में परावर्तित होकर सदा सदा के लिए मुक्त हो जाता हैं। 


इसके लिए महर्षि जी ने रामनामोपनिषद में लिखा कि, """" स वेदैतत्परमं ब्रह्मधाम......धीरा """""" ।।‌
जो इस परमब्रह्म" राम" को परमधाम के रूप में जानता हैं, जिसमें ज्योतिर्मय विश्व निहित है एवं आभासित होता है, कामनाओ से मुक्त होते हुए रामनामानुरागी भक्त उस "परम पुरूष" की उपासना करते हुए वे उस "शुक्र" से परे चले जाते हैं। ""शुक्र अर्थात जगत का कारण "।।


और फिर आगे और खोल कर समझाते हुए लिखते हैं कि, 
""""कामान् यः कामयते.........कामा""
जो कामनाओं की अभिलाषा करता हैं तथा जिसका मन उन कामनाओं में लीन रहता हैं,वह उन कामनाओं के द्वारा प्रेरित वहीं- वहीं जन्म ग्रहण करता है,किन्तु जिसने ससंकल्प रामनामाकंन योग को अपना लिया है, उसकी समस्त कामनाएं अस्त होकर निष्कामताको उपलब्ध हुआ स्वःलोक को प्राप्त करता हैं, ऎसे "कृतात्मा" जन की यहीं, 'इसी लोक' में समस्त कामनाएं विलुप्त हो जाती हैं ।
तो उनके अनुयाई ने पुछा कि, महर्षिवर, क्या समस्त "रामनामाकंन कर्ताओं को यह पद उपलब्ध हो जाता हैं, ?
तो महर्षि जी ने बताया कि, उपरोक्त कथन का तात्पर्य यही था, कि जो चाहोगे सो पाओगे"" 
अगर रामनामाकंन कर्ता जगत की कामना करता हैं तो जगत को पायेगा, और स्वलोक की चाहना करता हैं तो स्वलोक अर्थात परमात्मा को उपलब्ध होगा, । 
यदि कामनाएं प्रगाढ़ रहती हैं तो भी कोई बात नहीं पहले उसकी पुर्व में चाही कामनाओं की पूर्ति होकर फिर निष्कामता को उपलब्ध हो जायेगा। परंतु रामनामाकंन का अंततः परिणाम राम नाम के सहारे स्वःलोक को प्राप्त करना ही है।
क्योंकि रामनामाकंन के अतिरिक्त कलिकाल के मानवों के पास और कोई सहज सरल साधन उपलब्ध नहीं हैं, ।


उपनिषद् कहता हैं कि,
नायमात्मा प्रवचनेन............ स्वाम्।।।


यह "आत्मा।राम" प्रवचन द्वारा लभ्य नहीं हैं,‌ न ही मेधा -शक्ति और न शास्त्रों को बहुत जानने- सुनने से प्राप्य है।
तो ?
तो ! तो केवल वही उसे प्राप्त कर सकता हैं जिसका वह वरण करता हैं; केवल उसके प्रति ही यह "आत्माराम" अपने स्वरूप को उद्घाटित करता हैं। 
"वह "वरण करता हैं ! 
अतः गोस्वामी जी इसकी पुष्टि यों करते हैं, 
तुम्हरी कृपा तुम्हहीं रघुनन्दन।
जानही भगत भगत उर चन्दन।।
जानत तुम्हहीं तुमहहीं होई जाई।।


रघुन्दन की कृपा से ही रघुन्दन को जाना जा सकता हैं। 
अर्थात "राम" की कृपा से ही "राम" को जाना जा सकता हैं तो ? फिर राम राम राम ही तो करना हैं, और राम राम करना ही हैं तो रामनामाकंन करना तो दो गुणा ज्यादा शिघ्र कल्याणकारी हैं। 
रामनामाकंन मुद मंगलकारी।
समय अल्प लाभ अतिभारी।।
रामनामाकंन करते हुए "राम" स्वयं रामनामाकंन कर्ता का वरण करलें इससे बेहतर तो कोई योग जगत में नहीं हैं !


नायमात्मा बलहीनेन................ब्रह्मधाम।।


यह 'परमात्मा' बलहीन व्यक्ति के द्वारा लभ्य नहीं हैं, न ही प्रमादग्रस्त व्यक्ति को लभ्य होगा, 
प्रमादस्त व्यक्ति और बलहीन व्यक्ति ,दोनो ही सदा दुसरों में देखते हैं। उनका अपनेआपको देखने की अति सहज युक्ति से भी ,कभी भी, वास्ता नहीं हो पाता, । सदा प्रमाद में रहने से राग,द्वेषादिता मानसिकता में बसी रहने से, स्वः से परे देखने में व्यस्त रहते मैं ,मैरा, तू,तैरा का भाव प्रगाढ़ होता रहता हैं, जिससे वो आत्मा सहजस्वरूप से वंचित होकर. जन्ममरण के योगका वरण करता हैं।


"गताःकला:पञ्चदश ...........सर्व एकी भवन्ति""


उपनिषद निर्देशित करता हैं।
कि, सहजभावेन सरामनामाकंनात् ""'
सहज भाव से सप्रेम रामनामाकंन करते रहने से पन्द्रह कलाएँ अपनी अपनी प्रतिष्ठा (आधारभूत स्थिति ) में लोट जाती हैं। तथा समस्त देवगण अपने- अपने देवत्व में चले जाते हैं,कर्म तथा विज्ञानमय आत्मा' — सभी उस 'परम' अविनाशी' परमात्मा' राम' में एकीभूत हो जाते हैं। 
और 
"नामरूपाद्विमुक्त"
जिस प्रकार प्रवाहित होती हुई नदियाँ अपनेधाम ,समुद्र' में पहुँच जाती है , अर्थात समुद्र में पहुंच कर नदी का कोई अलग से अस्तित्व नहीं रह जाता, वो समुद्र में मिलते ही विलीन हो जाती हैं, अपने नाम और रूप दोनो से मुक्त होजाती हैं या छोड़ देती हैं, उसी प्रकार रामनामाकंन करता भक्त भी स्वनाम रूप से मुक्त होकर परमदिव्य पुरुष 'परात्पर' "राम" को प्राप्त हो जाता हैं। 


वस्तुतः वह जो कि उस परम ब्रह्म को जानता हैं वह स्वयं ब्रह्म ही हो जाता हैं, """जानत तुम्हही तुमहहीं होई जाई।। """' और तो और उपनिषद ने तो यहाँ तक कह दिया कि, उसके कुल में " राम' को न जानने वाला पैदा ही नहीं होता। 
वह शोक से पार जो जाता हैं,वह पापों से तर जाता हैं, वह ह्रदगुहा की ग्रंथियों से मुक्त होकर अमर हो जाता हैं।
उपनिषद कहता हैं कि, यह कथन मात्र उन्हे ही कहना चाहिए जो कि, रामनामाकंन को समर्पित होगये हों, या जिनका रामनामाकंन पुरश्चरण पुर्ण होगया हों। 
परम ऋषियों को नमन् । परम ऋषियों को नमन्।।।


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