अमरीका के तालिबान को बनाने और निपटाने के खेल में क्या फ़ायदे में रहा पाकिस्तान


अमरीका के तालिबान को बनाने और निपटाने के खेल में क्या फ़ायदे में रहा पाकिस्तान अमरीका और अफ़गानिस्तान के कट्टर इस्लामी संगठन तालिबान के बीच एक अहम शांति समझौता हुआ जिसके बाद अब ये माना जा रहा है कि अफ़गानिस्तान में दशकों से जारी तनाव ख़त्म हो सकेगा. इसके बाद अब अगर अफ़गान तालिबान समझौतों की शर्तों का पालन करता है तो अमरीका अफ़गानिस्तान में मौजूद अपने पाँच हज़ार सैनिकों को अभी और बाक़ी के 13 हज़ार सैनिकों को अगले साल के अप्रैल तक वापिस बुला लेगा. समझौते की शर्तों के अनुसार तालिबान अपने क़ब्जे वाले इलाके में किसी और चरमपंथी गुट को पनपने नहीं देगा. अफ़गान सरकार से बातचीत भी आगे बढ़ाएगा. अफ़गानिस्तान दशकों से लगातार हिंसाग्रस्त रहा है. क़रीब चार दशक पहले यहां जब सोवियत हमला हुआ उस वक्त उससे लड़ने के लिए सामने आए लोगों को अफ़गान मुजाहिदीन कहा जाने लगा. इन्हें अमरीका और पाकिस्तान का समर्थन प्राप्त था. सोवियत सेना के वापस लौटने के कुछ वर्षों बाद जो स्थितियां पैदा हुईं उसी अस्थिरता के बीच 90 के मध्य में वहां तालिबान एक शक्तिशाली संगठन बन कर उभरा. अमरीका में हुए 9/11 के हमलों के बाद अमरीका ने साल 2001 में अफ़गानिस्तान में तालिबान के खिलाफ़ हमले किए. इसमें फिर से उसका साथ दिया पाकिस्तान ने. ऐसा करने के बाद पाकिस्तान खुद कई सालों तक तालिबानी हमलों के निशाने पर रहा. 2001 में अमरीका की अगुवाई में हुए हमलों के कारण तालिबान को सत्ता से दूर होना पड़ा. लेकिन एक बार फिर हाल में इस संगठन ने वापसी की. दो दशक तक लगातार तालिबान के साथ युद्ध में लगे रहने के बाद, अफ़ग़ानिस्तान में शांति बहाल करने के लिए अब अमरीका ने तालिबान के साथ हाथ मिला लिए हैं. और इस समझौते के होने में अहम भूमिका निभाई है पाकिस्तान ने. तालिबान के बनने से लेकर बिगड़ने तक और फिर मज़बूत वापसी करने तक पाकिस्तान, अमरीका के साथ अहम भूमिका में रहा. अब शांति समझौता होने के बाद पाकिस्तान को क्या हासिल होगा? पाकिस्तान में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार रहीमुल्लाह यूसुफ़ज़ई बताते हैं कि पाकिस्तान को इसका फ़ायदा तो होगा लेकिन वो तुरंत नहीं होगी बल्कि देर में होगा. वो कहते हैं, "पाकिस्तान की छवि कुछ इस प्रकार की हो गई थी कि वो नहीं चाहता कि अफ़गानिस्तान में शांति आए. उस पर तालिबान का समर्थन करने के भी आरोप लगे. लेकिन अब तालिबान और अमरीका के बीच हुए शांति समझौते के बाद कई लोग मान रहे हैं कि पाकिस्तान ने संजीदगी से बड़ी अहम भूमिका निभाई है." "लेकिन पाकिस्तान का ये मानना है कि पाकिस्तानी तालिबान, बलोच अलगाववादी और दाएश (इस्लामिक स्टेट) अभी भी अफ़गानिस्तान में हैं और पाकिस्तान पर हमले करने के लिए उसकी सरज़मीन का इस्तेमाल कर रहे हैं." पाकिस्तान में मौजूद बीबीसी उर्दू संवाददाता आसिफ़ फ़ारूकी बताते हैं कि पाकिस्तान के लिए ये बात बेहद अहम है कि उसके पड़ोस में शांति बहाल हो. वो कहते हैं, "अगर अफ़गानिस्तान में अमन होगा तो पाकिस्तान अपनी दक्षिणी सीमा को लेकर सुरक्षित महसूस करेगा."लेकिन क्या वाकई पाकिस्तान फायदे की स्थिति में है?


लेकिन क्या वाकई पाकिस्तान फायदे की स्थिति में है? आसिफ़ फ़ारूक़ी कहते हैं कि पाकिस्तान से जो सामान अफ़गानिस्तान होते हुए आगे भेजा जाता था उसकी सुरक्षा के लिए तालिबान बना था. वो कहते हैं, "ये बात अब रिकॉर्ड पर है कि पाकिस्तान ने इसमें निवेश भी किया था. लेकिन बाद में चीजें बिगड़ी और दोनों देशों के रिश्ते बिगड़े. रणनीतिक तौर पर पाकिस्तान का अफ़गानिस्तान का पड़ोसी होना उसके लिए फायदेमंद भी रहा और इस कारण उसे नुकसान भी हुआ." "जहां अमरीका ने तालिबान के उभरने में और फिर उसे नष्ट करने में पाकिस्तान की मदद ली और पाकिस्तान में अपनी स्थिति का फ़ायदा भी उठाया वहीं पाकिस्तान में इस कारण हज़ारों मौतें भी हुई और वो भी तनाव से जूझता रहा." रहीमुल्लाह कहते हैं कि "अफ़गान तालिबान के खिलाफ़ पाकिस्तान की मदद अमरीका ने की क्योंकि वो सोवियत संघ का विस्तार रोकना चाहता था और पाकिस्तान ने इसका साथ दिया. बाद में दबाव में आकर तालिबान के साथ उसे अपने रिश्ते तोड़ने पड़े. इस पूरी


अफ़ग़ानिस्तान के इतिहास पर एक नज़र 1979 - सोवियत संघ की सेना का हमला जिसके बाद यहां कम्युनिस्ट सरकार बनी. इसके बाद यहां जो हिंसा शुरु हुई उसमें 10 लाख से अधिक लोगों की जान गई. 1989 -सोवियत संघ के सैनिकों की आखिरी टुकड़ी ने अफ़गानिस्तान छोड़ा. इसके बाद अमरीका और पाकिस्तान के समर्थन वाले लड़ाकों ने सोवियत संघ के समर्थन से बनी अफ़गान सरकार यानी राष्ट्रपति नजीबुल्लाह का तख्तापलट किया. नजीबुल्लाह को काबुल में मौजूद संयुक्त राष्ट्र के परिसर से घसीट कर ले जाया गया और उन्हें मार कर लटका दिया गया. इसके बाद देश में गृहयुद्ध की स्थिति पैदा हो गई. 1994 - इसी गृहयुद्ध के बीच तालिबान नाम के कट्टरपंथी संगठन का जन्म हुआ जिसने पहले उत्तर पाकिस्तान और दक्षिण पश्चिम अफ़गानिस्तान के इलाकों में अपने पैर फैलाए.



1996 - तालिबान ने क़ाबुल पर क़ब्ज़ा किया और इसके बाद वहां कट्टर इस्लामी क़ानून लागू किया. इसके अधिकतर को वोग शामिल थे जो सोवियत अफ़गान युद्ध का हिस्सा रह चुके थे. 2001 - अमरीका पर हुए 9/11 के चरमपंथी हमलों के लिए उसने अफ़गानिस्तान की तालिबान सरकार को ज़िम्मेदार ठहराया. इसके बाद अमरीका ने अफ़गानिस्तान में सैन्य हस्तक्षेप किया और काबुल को तालिबान के कब्जे से छुड़ा लिया. यहां अस्थाई सरकार कर हामिद करज़ई को राष्ट्रपति बनाया गया. 2002 - अफ़गानिस्तान में शांति स्थापित करने की ज़िम्मेदारी नैटो ने ली. नैटो सेनाओं के साथ-साथ अमरीका सेना ने भी यहां अपने ठिकाने बनाए. 2004 - क़बिलाई नेताओं की बैठक यानी लोया जिरगा ने नए संविधान पर मुहर लगाते हुए मज़बूत सरकार का रास्ता साफ़ कर दिया और हामिद करज़ई को राष्ट्रपति के तौर पर चुना गया. 2011 - लोया जिरगा की कई बैठकें हुईं जिसका तालिबान ने विरोध किया. तालिबान ने लोया जिरगा में भाग लेने वाले पर हमला करने की धमकी दी. 2013 - लोया जिरगा ने अमरीका के साथ होने वाले सुरक्षा समझौते को समर्थन दिया ताकि वहां मौजूद अमरीकी सेना अफ़गानिस्तान छोड़ सके. 2014 - अशरफ़ ग़नी देश के नए राष्ट्रपति चुने गए. नैटो ने आधिकारिक तौर पर अफ़गानिस्तान में अपना सैन्य अभियान ख़त्म किया और देश की सुरक्षा की पूरी ज़िम्मेदारी अफ़गान सेना को सौंप दी. 2018 - अफ़गान सरकार और अमरीकी सेना के खिलाफ़ लड़ने वाले तालिबान ने और अमरीका के साथ अफ़गानिस्तान शांति वार्ता प्रक्रिया की शुरु करने की बात की. एक खुला खत लिख कर तालिबान ने शांति वार्ता की इच्छा जाहिर की. 2019 - अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप ने अपने सलाहकारों से कहा कि वो नवंबर 2020 में होने वाले अमरीकी राष्ट्रपति चुनावों से पहले अपन सभी सैनिकों को अफ़गानिस्तान से वापस बुलाना चाहते हैं. 2020 - अमरीका ने कहा कि वो अगले 14 महीने में अपने और सहयोगी देशों के सैनिक अफ़गानिस्तान से वापस बुला लेगा. अमरीका और तालिबान के बीच 'एक विस्तृत शांति समझौते पर हस्ताक्षर हुए. इसके बाद अफ़गान सरकार और तालिबान में बातचीत का रास्ता खुल गया है.


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