चक भारत जहां की यात्रा करने के लिए किसी वीज़ा की ज़रूरत नहीं

ताज महल देखने की इच्छा किस के दिल में नहीं? कौन है जो दिल्ली जाने की तमन्ना तो करे लेकिन हज़रत निजामुद्दीन औलिया के मज़ार पर हाज़री की नियत न रखता हो और ज़िन्दगी में कम से कम एक बार पिंक सिटी जयपुर की सैर करने की आरजू तो हर दिल वाला रखता है. अगर मेरी तरह ये आप की भी विश लिस्ट पर है, लेकिन हर बार सफ़र का इरादा करते ही भारत पकिस्तान के खराब संबंध, सीमाओं पर जारी तनाव या वीज़ा की मुश्किलें आड़े आ जाती हैं तो दिल छोटा न करें. 'भारत यात्रा का एक आसान नुस्खा हम बता देते हैं. लेकिन ख्याल रहे कि इस 'भारत' में न तो किसी मुगल बादशाह की बनवाई गई यादगार है, न किसी वलीउल्लाह (अल्लाह के नेक बन्दे ) का मज़ार और न ही कोई हवाई महल.ये तो दो छोटे छोटे गांव हैं जो पकिस्तान के जिला सियालकोट में स्थित हैं और 'चक भारत कहलाते हैं. आइये चक भारत की इस यात्रा में मेरे साथ आप भी अपनी भारत यात्रा की इच्छा पूरी कर लें. यहां बिजली और सरकारी पानी की सुविधा मौजूद है लेकिन खाना पकाने के लिए गैस सिलेंडर या लकड़ियों का इस्तेमाल किया जाता है. गांव वालों के मोबाइल फ़ोन भारत और पाकिस्तान दोनों देशों की टेलिकॉम कंपनियों के सिग्नल पकड़ते हैं. दिलचस्प बात है कि सीमाई क्षेत्र होने के बावजूद इलाके में कोई बहुत ज़्यादा फ़ौजी मौजूदगी नज़र नहीं आती. बडों के काम मैं अभी गांव में दाखिल ही हुआ था कि नज़र बैठक में धूप सेकते बुजुर्गों पर पड़ी. मोहम्मद अशरफ़ यहां के नंबरदार और पकिस्तान रेंजर्स के रिटायर्ड इंस्पेक्टर हैं. मैंने सलाम के बाद जब उनसे पूछा कि ये अनोखा नाम 'चक भारत' कब और कैसे पड़ा तो उन के पास कोई जवाब नहीं था. "ये पाकिस्तान के बनने से भी पहले की बात है. हमारे बाप दादा यही नाम लेते थे, अब हम भी यही नाम इस्तेमाल करते हैं और हमारी औलाद की ज़बान पर भी यही चढ़ा हुआ है. ये तो बड़ों के काम हैं, हमें क्या पता उन्होंने क्यों ये नाम रखा." क्या आप भारत के हैं? नंबरदार साहब के साथ बैठे मोहम्मद सिद्दीक़ का जन्म इसी गांव में हुआ है. उनके बाप दादा भी यहीं दफ़न हैं. अब वो यहां हार्डवेयर की दूकान चलाते हैं. मुझे मोहम्मद अशरफ़ से बात करते देख कर वो भी बात चीत में शामिल हो गए. "जब कभी हम पहचान पत्र बनवाने सरकारी कार्यालय में जाते हैं तो वहां काम करने वाले हमें अजीब नजरों से देखते हैं. कहते हैं कि ये भारत नाम का पिंड कहां से आ गया? फिर पूछते हैं कि क्या आप अब भी भारत में रहते हैं. तो हम उन्हें बताते हैं कि हम रहने वाले पकिस्तान के ही हैं लेकिन हमारे गांव का नाम भारत है." यहां से इजाज़त लेकर मैं आगे बढ़ा तो गांव की मस्जिद के पास से गुजरते हुए हाजी मोहम्मद असलम पर नज़र पड़ी. वो नमाज़ के बाद तिलावत कर रहे थे. वो तिलावत से फ़ारिग हुए तो मैंने उनकी उम जाननी चाही. नाम जिसमें अपनापन है मस्जिद से निकलते समय किसी ने ज़िक्र किया कि गांव में एक नब्बे साल की बूढ़ी महिला भी है, शायद उसे इस नाम के बारे में कुछ पता हो. हम गुलाम फ़ातिमा से मिलने उनके घर के सहन में दाखिल हुए तो वो हुक्का पी रही थीं. मैंने अपने आने का मकसद बताया तो ऐसा लगा जैसे किसी ने अचानक उन्हें एक टाइम मशीन में डाल कर भूतकाल में पहुंचा दिया हो. वो ठेठ पंजाबी में शुरू हो गई. "सन सैंतालीस में मेरी उम्र कोई पंद्रह-सोलह साल होगी. मैं हिन्दू लड़कियों के साथ खेला करती थी. वो बहुत सोहने लोग थे. जब बंटवारे का शोर उठा, उसके बाद हालात खराब हुए. हिन्दु और सिख जाते हुए बहुत जुल्म करके गए. यहां कत्ले आम हुआ." इतिहास का ये पाठ जारी था कि दरवाजे पर गधा गाड़ी पर ताज़ा सब्जियां बेचने वाले मोहम्मद जाहिद ने दस्तक दी. माँ जी तो सब्जी खरीदने और उनके रेट कम कराने में लग गई लेकिन हमने मौके का फायदा उठाते हुए मोहम्मद ज़ाहिद के सामने भी अपना सवाल दोहरा दिया. "हमें तो ये नाम बिलकुल अजीब नहीं लगता. शायद इसलिए क्योंकि हम यहां रहते हैं. हां किसी दूसरे पिंड जाएं तो ये अहसास होता है कि चक भारत एक अलग सा नाम है. लेकिन हमारे लिए इस नाम में एक अपनापन है." लोग हंसते हैं लेकिन ऐसा भी नहीं है कि चक भारत में हर कोई इस अलग तरह के नाम से खुश है. कुछ ऐसे भी हैं जो ये नाम पसंद नहीं करते. पैंतालीस साल के चौधरी असलम भी इन्हीं में से हैं हम उनसे मिले तो वो दरांती लिए सरसों के खेत में घास काट रहे थे. ये नाम अब बदलना चाहिए इसलिए क्योंकि ये भारत के नाम पर है. नाम पहचान होता है और ये पहचान हमें पसंद नहीं. लोग हम पर हंसते हैं कि ये क्या भारत के रहने वाले हैं? आप किस जगह के हैं ये कौनसा गांव है? फिर शर्मिंदगी महसूस होती है. पकिस्तान के लिए पैगाम दुशमन से कैसी दोस्ती? सीमा रेखा से एक किलोमीटर से भी कम दूरी पर गोलियों और गोलों की बौछार में ज़िन्दगी गुज़ारने वालों में जंग के ख्यालात न पाएं जाएं ये मुमकिन नहीं है. इसका अंदाज़ा मुझे मोहम्मद जावेद से बात करके हुआ. वो मोटर साइकिल पर कहीं जा रहे थे लेकिन मुझे देख कर रुक गए. भारत से दोस्ती का सवाल ही पैदा नहीं होता, दुश्मन से कैसी दोस्ती? मक्कार आदमी से कैसी दोस्ती? सिर्फ एक ही हल है वो है जंग, हम भारत से बिल्कुल नहीं डरते. जब बड़ों में सीमा पार बसे पड़ोसी के लिए ऐसे जज़्बात हो तो बच्चों के ज़हन का अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं. मैंने बस्ते कंधे पर डाले मदरसे से घर वापस जाती उरूज फ़ातिमा को रोक कर पूछा कि भारत के बारे में जानती हो तो उसने झट से सिर हिला कर कहा, हां जानती हूं. भारत हमारे ऊपर फायरिंग करता है. वो कहते हैं कश्मीर वो लेंगे, हम कहते हैं कश्मीर हम लेंगे. वो बहुत बुरे हैं. वो पकिस्तान को खत्म करना चाहते हैं. बम गोली की मुश्किलें लेकिन इन सीमाई देहातों में रहने वाली बहुसंख्यक आबादी जंग की तबाही को न सिर्फ़ जानती है बल्कि इससे सीधे तौर पर प्रभावित भी होती है. सिर पर सूखी लकड़ियों का गट्ठर उठाये तीस साल के गुलाम नबी मुझे मिले तो अपने तजुर्बे साझा करने लगे. ये हम जानते हैं कि सीमा पर फायरिंग से क्या मुश्किलें होती हैं. यहां रहना मुश्किल हो जाता है. हमें गांव खाली करके दूसरे गांव जाना पड़ता है. हम अपनी ज़मीनों पर न खेती कर सकते हैं और न ही जानवर चरने के लिए छोड़ सकते हैं. हम सीमा पर रहने वाले सबसे अधिक शांति चाहते हैं. चलते-चलते मैं गांव की एक मात्र किराना की दूकान पर पहुंचा तो दूकान के मालिक मोहम्मद आसिफ़ से मुलाकात हुई. वो किसी भी तजुर्बेकार कारोबारी व्यक्ति की तरह भारत पकिस्तान संबंध को सिर्फ आर्थिक नज़रिये से देखते हैं. दोनों देशो में सम्बन्ध ठीक हो जाये तो इससे अच्छा क्या होगा, हमे भी कोई मुश्किल न हो और उन्हें भी कोई परेशानी न हो. हम अपना कारोबार सुकून से कर सकेंगे. जब बम गोली चलती है तो फिर तो मुश्किल ही मुश्किल है. नई नस्ल, नए खयालात अमन की इच्छा दोनों तरफ़ की नौजवान नस्ल के लिए कितनी अहमियत रखती है इसका अंदाज़ा मुझे लाहौर में मास्टर्स कर रहे 22 साल के विद्यार्थी मलिक मंजूर को देख कर हुआ. जैसे हम किसी दुसरे मुल्क जाते हैं उसी तरह हम भारत भी जाएं और वहां वाले इधर आएं. ये हमें अच्छा लगेगा. ये आने वाली नस्ल के लिए भी अच्छा होगा. आये दिन की गोला बारी से बच्चे सहम जाते हैं. शान्ति होगी तो उनमे आत्मविश्वास आ जायेगा.दोस्ती का नुस्खा और आने वाली नस्ल खुद क्या सोच रखती है ये जानने के लिए हमने उस जगह का रुख किया जहां ये नस्ल तैयार हो रही है. मैं चक भारत के प्राइमरी स्कूल पहुंचा तो छुट्टी का समय हो रहा था लड़के और लड़कियां ग्राउंड में जमा थे. मुझे देख कर उन सबका ध्यान मेरी तरफ़ हो गया और बात चीत शुरू हो गयी. जब मैंने पूछा कि भारत पाकिस्तान के बीच जंग होनी चाहिए या दोस्ती तो सब एक साथ बोले दोस्ती. फिर बड़ी होने के नाते सबसे आगे खड़ी लड़की ने भारत-पकिस्तान की दोस्ती का बहुत ही आसान नुस्खा बता कर कम से कम मुझे तो लाजवाब कर दिया. अगर भारत वाले फ़ायरिंग न करें तो हमारे फ़ौजी भी फ़ायरिंग नहीं करेंगे तो फिर दोनों देशों में दोस्ती हो सकती है. छुट्टी की घंटी बजी तो साथ ही इस दस साल की देहाती लड़की ने भारत-पाकिस्तान डिप्लोमेसी की पेचीदा गुत्थी भी सुलझा दी. काश कोई जाए और दिल्ली, इस्लामाबाद और न्यूयॉर्क में फाइलों के पन्नों को काले करते राजनायिकों को भी दक्षिणी एशिया में शांति का ये फ़ार्मूला बता दे. क्या पता दुनिया की एक चौथाई आबादी के लिए आने वाले 70 साल, बीते सत्तर साल से अच्छे होने की कोई उम्मीद बन जाए.


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