इस नवसंतसर के राजा बुधदेव हैं तो मंत्री चन्द्रदेव हैं, सारे ठाठ बाट के साथ आनेवाला यह नव वर्ष प्रमादी हैं, अतः रामनामाकंन करना आवश्यक होगा।

नाम राम कथा 197-
आप सभी साधकों,पाठकों,एवं रामनामाकंन कर्ता परमभक्तवृंदों को नव वर्ष की
।।राम राम सा।।
इस नवसंतसर के राजा बुधदेव हैं तो मंत्री चन्द्रदेव हैं, सारे ठाठ बाट के साथ आनेवाला यह नव वर्ष प्रमादी हैं, अतः रामनामाकंन करना आवश्यक होगा।
कारण प्रमाद ग्रस्तता होती हैं विवादों से और रामनामाकंन करता हैं मनबुद्दिचित्त अहं को निर्द्वन्द्वी,। 
निर्द्वन्ता और द्वन्द्वमुक्ति एक ही बात होते हुए भी इस अवस्थापलब्धि के मार्ग में कुछ भिन्नता हैं।


द्वन्द्व (राग-द्वेषदादि) ही विषमता हैं। जिनसे सब प्रकार के पाप पैदा होते हैं, विद्या के स्थान पर अविद्या का कब्जा हो जाता है।
अतः विषमताका त्याग जरनेके लिए साधकको नाशवान् पदार्थों के माने हुए महत्व के स्थान पर नाममहाराज के महत्वको स्वीकार करना चाहिए । अपने अहं,अपने नाम,अपने पद,प्रतिष्ठा,अपने शारीरिक बल,बुद्धि, आदि के साथ जो अपनत्व हैं उसको अन्तः करण से निकाल देना चाहिए।
हां पर आप इनको जबरन धकेल कर निकालना चाहेगें तो यह असंभव होगा,बल्कि आप और ज्यादा मजबूत इनकी पकड़ में जकड़ जायेगें।
हां इनको महत्व नहीं देते हुए मात्र रामनाममहाराज को महत्व देनेको रामनामाकंन करते रहेगें तो इनका बर्चस्व स्वतः समाप्‍त ही हो जायेगा। 
जैसा कि रामनामोपनिषद का सूत्र हैं,कि
"द्वन्द्वैर्मुक्ता निर्मानमोहापदमव्ययं तत् रामनामः।।
रामनामाकंन करते रहने से रामनाममहाराज की कृपा बरषते ही साधक द्वन्दमुक्त,होकर मानमोहसे रहित होते हुए परमपद को उपलब्ध होजाता हैं।
और हमारी प्रार्थना हैं कि समस्त रामनामाकंन कर्ताभक्तों को यह अतिदुर्लभ पद रामनाममहाराज की कृपा से सहज ही प्राप्त हों ! जो सतत अकंन कर रहे हैं उनको भी और जो श्रीरामनाम महामंत्र प्रदक्षिणा करते है या कर रहे हैं उनको भी यह नव वर्ष अपनी प्रमादप्रियता से मुक्त करते हुए उनको निर्द्वन्दित अवस्था उपलब्धि में इस नवसमनवत्सर का सम्पूर्ण मंत्री मण्डल सहयोग करें।
निर्द्वन्दता उपलब्धि हेतु रामनाममहाराज की कृपा तो होगी ही परंतु संवतसरी मंत्री मण्डल की आशीष भी बनी रहे तो और सुगमता हो जाती हैं। क्योंकि द्वन्द्व दो तरह से होता हैं।
उसका एक रूप स्थुल होता हैं,और दुसरा सुक्ष्म ।
स्थुल द्वन्द्व. व्यवहारिक होता हैं, ।
सुख-दुख अनुकूलता-प्रतिकुलता आदि स्थुल द्वन्द्व हैं। यह स्थुल द्वन्द्व मनुष्य ही नहीं बल्कि पशु,पक्षी, वृक्ष आदि को भी देखना पड़ता हैं। 
प्राणी सुख ,अनुकुलता,आदि की इच्छा तो करता है परंतु दुःख प्रतिकुलता की इच्छा कभी नहीं करता,फिर भी , वो आते रहते हैं। परंतु समर्पित रामनामाकंनयोगी पर इनका कोई प्रभाव नहीं पडता कारण रामनाम महाराज का प्रताप अतिप्रबल हैं, अतः उनकी शरण में :-----


दुसरा हैं सुक्ष्म द्वन्द्व अर्थात आध्यात्मिक द्वन्द्व — यद्यपि अपनी उपासना और उपास्यको ही सर्वश्रेष्ठ मानकर ही रामनामाकंन करते हुए श्री रामनाममहाराज को ही सर्वेसर्वा मानना चाहिए। और हैं भी, और यह मान्यता ही आवश्यक भी हैं और लाभप्रद भी हैं; फिरभी साधक को दुसरों की उपासना और उपास्य को नीचा बताकर उसका खण्डन ,नींदा,आदि करना यह "सुक्ष्म द्वन्द्व " हैं, जो कि रामनामाकंन कर्ता साधकों योगीयों के लिए यह महान हानिकारक हैं। 
तो प्रभु से प्रार्थना हैं कि, यह संवत्सर आपके जीवन में इस प्रकार के द्वन्द्वावस्थस को असने ही नही दें। 
और समर्पित भाव से रामनामाकंन करते रहने से श्री रामनाममहाराज आपको बचायेगें।


अच्छा यह समझो कि हम रामनामाकंन करते क्यों है ? 


क्या हमें अच्छी पद पोष्ट मिलजाये, या बच्चों की शादी विवाह होजाये,या मकान बन जाये, !
नहीं नहीं इनके लिए तो हमारी संस्कृति में हजारों हजारों मंत्र एवं साधनाओं की भरमार हैं, कोई मंत्र जपलो। 
पर समर्पित बवाव से रामनामाकंन कर्तायोगी इन सबके लिए रामनामाकंन नहीं कर्ता,बल्कि उसका उद्देश्य उतकृष्ट होता हैं ।
उसमें एक विलक्षण बात होती हैं कि वो उद्देश्‍ययुक्त होकर भी निर्उद्धेश्यी होता हैं। 
रामनामाकंन कर्ता उपासक का एक मात्र उद्देश्‍य संसार(जड़ता-) से सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद करना है।
अब यहाँ नानाकार साधक हैं, पर साधकोंकी रूचि, श्रद्धा- विश्वास और योग्यताके अनुसार उपासनाओंमें भिन्नता होती हैं,जिसका होना उचित भी हैं पर रामनामाकंनयोगियों को उपासनाओमन की भिन्नतापर दृष्टि नहीं रख कर सबके मूल उद्देश्य की अभिन्नतापर ही अपनी दृष्टि रखनी चाहिए । हां रामनामाकंन करने में साधकों की लेखनी सुंदर,तो अतिसुंदर या कोई लेखनी अति असुंदर भी हो सकती हैं,परंतु उनके मूल उद्देश्य में अंतर नहीं हैं अतः सबके मूल उद्देश्य पर दृष्टि रखते हुए अपनी साधनामें तत्परता बनी रहे तो उपासना-सम्बन्धी "सुक्ष्म द्वन्द्व" स्वतः मिट जाता हैं। 
अतः मैरी श्री रामनाममहाराज से हार्दिक प्रार्थना हैं कि यह नवसंवत्सर सभी साधकों के जीवन में अप्रमाद,निर्द्वन्द्वता ,और निर्मोनमोहा अवस्था उपलब्ध करायें। और अपने प्रमाद प्रियता से मुक्त रखें। 2077 का मूलांक सात, राम नाम के मूलांक से‌ मैल रखता हैं अतः रामनामाकंन कर्ता भक्तों के लिए अतिउत्तम हों एसी प्रार्थना एवं निवेदन, हैं। 
वैसे साधना कोई कैसी भी करता हों ?
पर साधक के अंतः करण में जब तक संसार,जडता- रहती हैं तभी तक ये द्वन्द्व रहते हैं। "स्थुल द्वन्द्व" समनसार को विशेषरूपसे सत्ता और महत्ता देता हैं। अतः स्थुलद्वन्द्व को महत्व नहीं दिया जाय,इसको मिटाना बहुत बहुत जरूरी हैं।
अब इसके गहरे पहलू पर विचार करें,तो यह अनुभव में आजाता हैं कि, जब तक मूढ़ता रहती हैं ,तभी तक द्वन्द्व रहते हैं।


जब तक मूढ़ता रहती हैं रामनाममहाराज के प्रकट प्रताप को जो कि कलिकाल के मानवों के लिए तो ,अत्यंत प्रबल प्रतापधारी प्रधान सत्ता हैं ;को भी नहीं पहचान पाता ।
मानस में भगवान सदाशिवने माता पार्वती को बडे सहज भाव से अतिगूढ़ बात बताते हुए सचेत किया, कि-
उमा राम गुण गूढ़------- पावही मोह विमूढ़:-----


तो भगवान सदाशिवने बताया कि, राम नाम का प्रबल प्रताप अत्यन्त गूढ़ हैं, जो बिना रामनाममहाराज के प्रति सप्रेम समर्पण किये बिना समझ में नहीं आता हैं, । असमर्पित भाव से तो मूढ़ता को प्राप्त हो जाना सहज संभव हैं। 
और जब तक मूढ़ता रहती हैं, तभी तक द्वन्द्व रहते हैं,।
वैसे एक बात और समझ लेनी हैं कि, अपने में द्वन्द्वता मानना ही मूढ़ता हैं।
राग-द्वेष,सुख-दुःख,हर्ष-शोक आदि द्वन्द्व अन्तःकरण में होते हैं, स्वयं-(अपने स्वरुप-) में नहीं । अन्तःकरण जड है और स्वयं' चेतन एवं जडका प्रकाशक हैं। अतः अन्तःकरणसे 'स्वयं' का सम्बन्ध है ही नहीं । केवल मान्यतासे ही यह सम्बन्ध प्रतीत होता है।
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