रूस-सऊदी का झगड़ा भारत के लिए ख़तरा या फ़ायदे का सौदा?


कोरोना वायरस की दहशत और सुस्त वैश्विक अर्थव्यवस्था के बाद अब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत तेज़ी से गिरी है. खाड़ी युद्ध के बाद ये पहली बार है जब तेल के दाम में इस क़दर गिरावट आई है. सोमवार को कच्चे तेल की कीमत में 30 फ़ीसदी की गिरावट दर्ज की गई. इसका असर भारत समेत दुनिया भर के शेयर बाज़ारों पर भी पड़ा. तेल की कीमतों में आई गिरावट की कई वजहें हैं और इसके कई दूरगामी प्रभाव भी होंगे. इसकी वजहें क्या हैं? तेल की कीमत में गिरावट की तात्कालिक वजह है ओपेक और रूस के बीच तेल के उत्पादन कम करने को लेकर समझौता न हो पाना. रूस और सऊदी अरब के झगड़े ने काम बिगाड़ा ओपेक तेल निर्यातक देशों का समूह है जिसमें सऊदी अरब का दबदबा है. रूस इसका सदस्य नहीं है लेकिन वो और सऊदी अरब हमेशा से मिलकर आपूर्ति के हिसाब से तेल के उत्पादन घटाते बढ़ाते थे. यही वजह थी कि रूस को मिलाकर ओपेक को 'ओपेक प्लस के नाम से भी जाना जाता था. लेकिन इस शुक्रवार को वियना में हुई बैठक में रूस और सऊदी अरब के बीच समझौता नहीं हो पाया. सऊदी अरब चाहता था कि तेल का उत्पादन कम किया जाए लेकिन रूस इसके लिए राजी नहीं हुआ. एनर्जी एक्सपर्ट और ब्रिक्स बिज़नस काउंसिल के प्रमुख नरेंद्र तनेजा का मानना है कि रूस और सऊदी के बीच असहमति की वजह पिछले कुछ वक़्त से दोनों देशों में चल रहा मनमुटाव और सऊदी अरब का अपनी प्राथमिकताओं को आगे रखना और इसके एजेंडे का ज़्यादा व्यक्तिगत होना है. कच्चे तेल के दाम में गिरावट एशिया में बाज़ार खुलते ही धड़ाम. . भारतीय शेयर बाज़ार में 2000 से अधिक अंकों की गिरावट. भारतात अमरीका के न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज में लगातार गिरावट के बाद थोड़ी देर के लिए ट्रेडिंग रोकनी पड़ी. - 2008 की मंदी के बाद बाज़ारों में सबसे बड़ी गिरावट. तनेजा के मुताबिक़ रूस अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में अपनी हिस्सेदारी का विस्तार करना चाहता है और दोनों देशों के बीच असहमति की एक वजह ये भी है. वहीं, मध्य पूर्व मामलों के जानकार और वरिष्ठ पत्रकार हरेंद्र मिश्र रूस के अपने फैसले से पीछे न हटने की एक और वजह बताते हैं. उन्होंने बीबीसी से बातचीत में कहा, "रूस की अर्थव्यवस्था अब काफ़ी हद तक तेल पर आधारित हो चुकी है. इतना ही नहीं, वहां तेल कंपनियों का काफ़ी दबदबा है और वो तेल उत्पादन कम न करने के लिए राजनीतिक दबाव बना रही हैं. यही कारण है कि रूस अपने फैसले पर अड़ा हुआ है." डोनाल्ड ट्रंप और अमरीका की भूमिका 'तो भारत को नुक़सान होगा...' एनर्जी एक्सपर्ट नरेंद्र तनेजा मानते हैं कि अगर तेल के दाम तीन महीने के बाद भी इसी तरह गिरते रहे तो भारत जैसे आयातक देशों के लिए भी नुकसानदेह होगा. उन्होंने कहा, "भारत 85 फ़ीसदी कच्चा तेल आयात करता है. इसलिए दाम घटने पर उसे कुछ समय तक फ़ायदा तो ज़रूर होगा. कुछ वक़्त के लिए ये भारत की अर्थव्यवस्था, वित्तीय घाटे और चालू खाते के घाटे के लिए अच्छा होगा. लेकिन ज़्यादा समय तक यही स्थिति बरकरार रही तो पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था में मंदी की आशंका मंडराने लगेगी." तनेजा का मानना है कि ज़्यादा समय तक दाम में गिरावट का असर उन एक करोड़ के करीब भारतीयों पर भी पड़ेगा जो ओमान, कतर, बहरीन, सऊदी अरब और यूएई जैसे खाड़ी देशों में रहते हैं. उन्होंने कहा, "सभी खाड़ी देशों की अर्थव्यवस्था तेल पर आधारित है. तेल के दाम लगातार कम होने से वहां कंपनियां बंद होने, बेरोज़गारी और अर्थव्यवस्था में मंदी की आशंका होगी. इसका प्रभाव वहां रहने वाले भारतीयों पर पड़ेगा, भारत भेजी जाने वाली उनकी कमाई पर भारत में तेल सस्ता क्यों नहीं होगा? अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल के दाम बढ़ने पर भारत में पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ जाते हैं. तो फिर कच्चे तेल के दाम कम होने पर पेट्रोल-डीजल के दाम कम क्यों नहीं हो रहे हैं? इस सवाल के जवाब में तनेजा कहते हैं, "सरकार को हर चीज़ को संपूर्णता में देखना पड़ता है. तेल की कीमत हमेशा कम रहने वाली नहीं है. ये जितनी जल्दी नीचे गिरी उतनी ही जल्दी इसमें उछाल भी आ सकता है. भारत सरकार तेल की कीमत का नियमन दुनिया की अर्थव्यवस्था, राजनीति और कूटनीति...इन सबको ध्यान में रखकर करती है." तनेजा के अनुसार, "सरकार तेल के अर्थशास्त्र को सालाना आधार पर आंकती है न कि किसी खास एपिसोड के आधार पर. अभी जो हो रहा है, वो एक एपिसोड है. ये स्थिति साल भर नहीं रहने वाली है, इसलिए सिर्फ इसके बिनाह पर दाम अचानक से घट जाएं, ऐसा मुमकिन नहीं है." भविष्य कैसा होगा? इस उठापटक के बीच तेल और अर्थव्यवस्था का भविष्य कैसा दिखता है? अर्थशास्त्री मदन सबनवीस का मानना है कि कोरोना की वजह से जो नुकसान हुआ है उसे तुरंत ठीक नहीं किया जा सकता. उन्होंने कहा, "इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि कोरोना की वजह से अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचा है. ऑटोमोबाइल, ट्रैवल और एयरलाइन इंडस्ट्री बुरी तरह प्रभावित हुई है और सप्लाई चेन पर भी असर पड़ा है. हालात पटरी पर आने में कम से कम एक साल का वक़्त तो लगेगा." सबनवीस कहते हैं कि ऑयल इंडस्ट्री में एक रिस्क फ़ैक्टर हमेशा से रहा है और पिछले दशक से यह रिस्क बढ़ा है. एक महत्वपूर्ण बात ये भी है कि बहुत से देश अब कच्चे तेल का इस्तेमाल संभलकर कर रहे हैं. वो नवीकरणीय ऊर्जा (रेन्यूएबल एनर्जी) के स्रोत [t रहे हैं. इसलिए 10 वर्षों में अर्थव्यवस्था उस तरह से तेल पर आधारित नहीं होगी जैसी आज है या जैसी पहले हुआ करती थी.


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