भारत-नेपाल सीमा विवाद के बीच ही होगी कैलाश मानसरोवर यात्रा ?


बहुत से लोगों के लिए ये सपनों और कल्पनाओं की जगह है. विस्तृत पठार और ऊबड़-खाबड़ मैदानों से तीर्थयात्रियों और प्रकृति प्रेमियों की नज़र जहाँ तक जाती है, उन्हें विशाल पर्वत शृंखला ही नज़र आती हैं. इसके बीच का हिस्सा पथरीला और येनाइट जैसे गहरे भूरे रंग का और पर्वतों की चोटी मोटे सफ़ेद बर्फ से ढंकी हुई. इसकी पिघलती हुई बर्फ़ ज़मीन पर एक विशाल झील में गिरती हुई. ये खूबसूरती कोई बयां नहीं कर सकता. साधु, संत, सम्मानित लामा, बौद्ध, हिंदू या जैनी...कोई भी नहीं. ये सभी लोग इसके अद्वितीय सांस्कृतिक और प्राकृतिक महत्व की वजह से सदियों से यहाँ जुटते आए हैं. कैलाश मानसरोवर में आपका स्वागत है! भारत, नेपाल, भूटान, चीन और तिब्बत में न जाने कितने श्रद्धालुओं के लिए ये शिव-पार्वती समेत कई देवी-देवताओं का घर है. यही वजहें हैं कि कैलाश मानसरोवर यात्रा को ज़िंदगी में एक बार मिलने वाली तीर्थयात्रा माना जाता है. लेकिन यहां पहुंचने के लिए दोत-तीन हफ़्ते (निर्भर करता है कि आप कहां रहते हैं) का समय लगता है. ये यात्रा हवाई जहाज़, जीप और पैदल चलकर पूरी होती है. इतने मुश्किल सफ़र के बाद लोग दुनिया के सबसे मुश्किल भौगोलिग क्षेत्र यानी हिमालय क्षेत्र में पहुंचते हैं. अनिश्चितताएं और अड़चनें उत्तराखंड-लिपुलेख रोड लिंक से इय यात्रा को ‘काफ़ी हद तक कम अवधि' वाला बनाना नरेंद्र मोदी सरकार की प्राथमिकता थी. इस साल आठ मई को भारतीय रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए इसके रोड-लिंक का उद्घाटन किया. लेकिन इस रास्ते में भी कई अनिश्चितताएं और अड़चनें हैं. तिब्बती सरकार की निगरानी वाली वेबसाइट Tibet.cn के अनुसार चीन धीरे-धीरे सामान्य जिंदगी की ओर लौट रहा है. इस बीच सैलानियों को सांस्कृतिक और प्राकृतिक सौंदर्य वाली जगहों पर जाने के लिए कहा जा रहा है. लेकिन इसके बावजूद दुनिया भर में कोविड-19 के बिगड़ते हालात को लेकर कई चिंताएं भी हैं.


जुलाई-अगस्त तक क्या होगा, पता नहीं Tibet.cn के अनुसार भले ही पठार पर संक्रमण काबू में होता प्रतीत हो रहा है, "तिब्बत ने चीन में कोविड-19 संक्रमण फैलेने के बाद से ही इमरजेंसी रेस्पॉन्स लागू किया है. तिब्बत ने ये चेतावनी भी दी है कि इलाके में ऑक्सीजन की कमी और सीमित मेडिकल संसाधनों की वजह से बीमारी ज़्यादा ख़तरनाक हो सकती है." इस क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए तीर्थयात्रियों और सैलानियों को चीन के टूरिस्ट वीज़ा के अलावा तिब्बत सरकार से एक ख़ास परमिट भी लेना होता है. दिल्ली से उत्तर पूर्व में 750 किलोमीटर दूर स्थित लिपुलेख इस यात्रा के छह दिन कम करके इसे सबसे छोटा बना सकता है.



मुश्किलें और भी हैं... लेकिन तेनजिंग नोडू बताते हैं कि लिपुलेख पास को लेकर भी कई मुद्दे हैं. जैसे कि एक बार में यहाँ से गुज़रने वाले भारतीय यात्रियों की संख्या 1,000 से ज्यादा नहीं होनी चाहिए. लिपुलेख के अलावा कुछ अन्य विकल्प हैं: नेपाल के सिमिकोट, कोरोला, केरुंग या कोदारी सीमा से लगे इलाके. नेपाली ट्रैवेल एजेंटों के अनुसार यहां से गुज़रने वाले सैलानियों के लिए कोई तय सीमा निर्धारित नहीं की गई है. पूर्वोत्तर या पूर्वी भारत से आने वाले लोगों के लिए तीसरा विकल्प सिक्किम के गंगटोक और नाथुला दर्रे से होकर आने का है. तनेजिंग नोर्दू कहते हैं कि नेपाल से होकर जाने पर भारतीय तीर्थयात्रियों के लिए मानसरोवर यात्रा का ख़र्च डेढ़ लाख (जीप) से दो लाख (हेलिकॉप्टर) के बीच आता है.


इच्छाशक्ति की परीक्षा लेती है ये यात्रा लेकिन इसके लिए यात्रियों का स्वस्थ और फुर्तीला होना ज़रूरी है. उन्हें समुद्र तल से सिर्फ 200 किलोमीटर की ऊंचाई (दिल्ली) के बाद सीधे 1200 मीटर (काठमांडू) तक आने के लिए और ऊबड़-खाबड़ रास्ते से समुद्र तल से 5,200 मीटर की ऊंचाई तक (लिपुलेख) जाने वाली जीप में बैठने के लिए तैयार होना चाहिए. इतने मुश्किल सफ़र के बाद उन्हें पैदल चलने के लिए भी तैयार होना चाहिए. वहाँ हवा मैदानों जैसी नहीं होगी. कमज़ोर लोगों को ऑक्सीज़न सपोर्ट की ज़रूरत पड़ती ही है. कोविड-19 संक्रमण के दौर में और भी ज़्यादा सतर्क रहने की ज़रूरत है क्योंकि तिब्बत के सुदूर इलाकों में पर्याप्त अस्पताल और मेडिकल सुविधाएं नहीं हैं. मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी योजना के बावजूद कैलाश मानसरोवर की यात्रा अब भी एक सपने जैसी लगती है. ट्रैवल एजेंटों के मुताबिक़ इसके लिए और ज़्यादा ज़मानी कामों और सुधारों की ज़रूरत है. इसके अलावा, लिपुलेख तक पहुंचना भी आसान नहीं होगा. यहाँ हिमालय की बड़ी चढ़ाई है, जो समुद्र तल से लगभग 5200 मीटर की ऊंचाई पर है.



भारत-नेपाल सीमा विवाद दूसरी बाधा यात्रियों की व्यक्तिगत समस्या नहीं है लेकिन ये सरकारों की समस्या है. लिपुलेख भारत और नेपाल के बीच सीमा विवाद का कारण रहा है. भारत सरकार के लिपुलेख प्रोजेक्ट का नेपाल ने कड़ा विरोध किया है. नेपाल के लोग, नेता और आलोचक मोदी सरकार के गुंजी कालापानी इलाके से लिपुलेख रोड लिंक के हालिया और ‘एकपक्षीय' उद्घाटन से नाखुश हैं. पिछले 200 वर्षों से लिपुलेख से लेकर लिंपियाधुरा को अपना क्षेत्र मानता रहा है. इस हफ्ते नेपाल की कैबिनेट ने एक नया राजनीतिक नक्शा भी जारी किया जिसमें लिंपियाधुरा, कालापानी और लिपुलेख को नेपाल की महाकाली नदी की पश्चिमी सीमा में दिखाया गया है. लिपुलेख क्षेत्र का एक और महत्व है. यह विवाद पर्वत अपी नंपा संरक्षण क्षेत्र में है जो पश्चिमी नेपाल में स्थित आपी पर्वत, नंपा पर्वत और व्यास के चारों ओर के इकोसिस्टम की सुरक्षा करता है. ये सभी पर्वत चोटियां इस इलाके का सौंदर्य और बढ़ा देती हैं. ये रास्ते तीर्थयात्रियों को धारचुला से आगे लिपुलेख दर्रे और उस जगह तक ले जाते हैं जहां देवी-देवाताओं का निवास माना जाता है: कैलास मानसरोवर.


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