जितनी दिखती है, उससे कहीं गहरी है लॉकडाउन की मार: साफ़ दिख रही है लॉकडाउन से बढ़ी गरीबी

भारत के गांवों और शहरों में कामगारों की बहुत बड़ी आबादी है. ये मजदूर ज्यादातर दिहाड़ी पर काम करते हैं. कुछ जगहों पर हर सप्ताह मज़दूरी मिलती है. जो दिहाड़ी मिलती है वह अमूमन की कम होती है. इससे मजदूरों का गुज़ारा बड़ी मुश्किल से हो पाता है. खाना, रहना और कपड़े का ख़र्च ही पूरा नहीं हो पाता, बचत की बात तो दूर की कौड़ी है.भारत में ज्यादातर मासिक वेतन वाले लोगों के भी लिए बचत करना आसान नहीं है. आप सोच सकते हैं कि लॉकडाउन के इन दिनों में जब हर महीने वेतन पाने वाले लोगों (चाहे वे निजी क्षेत्र में काम कर रहे हों या सार्वजनिक क्षेत्र में) को भी रोज़मर्रा की ज़रूरतों को पूरी करने के लिए अपनी बचत में हाथ डालना पड़ रहा हो तो इन मज़दूरों पर क्या बीत रही होगी?


लाखों वेतनशुदा लोगों की हालत भी खस्ता इसमें कोई दो मत नहीं है कि लॉकडाउन के दौरान सबसे ज्यादा आर्थिक और भावनात्मक दिक्कतों का सामना रोज़ कमा कर खाने वाले ये मज़दूर ही कर रहे हैं. लेकिन दिल्ली, मुंबई और सूरत जैसे बड़े शहरों में मौजूद ऐसे मजदूरों की त्रासदी पर बहुत ज़्यादा ज़ोर देने से दूसरे आर्थिक वर्गों के लोगों की दिक्क़तें हमारी आंखों से ओझल हो रही हैं.


पीएफ़ की सेविंग्स से पैसा निकालने को मजबूर लोग लॉकडाउन की वजह से लोगों की माली हालत इस कदर खराब हो गई है कि कई लाख लोग अपनी पीएफ़ की सेविंग्स से पैसा निकाल चुके हैं. जबकि यह बचत उनकी रिटायरमेंट बाद की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए होती है. यह इस बात का सबसे बड़ा सबूत है कि लॉकडाउन के दौरान उन्हें किन आर्थिक दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. तरह की आर्थिक दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. कुछ को कम तो कुछ को ज्यादा. लॉकडाउन में अब छूट देने की ज़रूरत इन आंकड़ों से यह साफ़ है कि सिर्फ दस से बारह फ़ीसदी भारतीय ही लगातार बचत कर रहे हैं. कुछ दूसरे लोगों की भी बचत हो जाती है लेकिन यह उनकी इनकम या सैलरी स्ट्रक्चर की वजह से संभव हो पाता है. साफ़ दिख रही है लॉकडाउन से बढ़ी गरीबी हालांकि लॉकडाउन की वजह से कितनी गरीबी बढ़ी है इसका अभी कोई आंकड़ा नहीं आया है लेकिन बढ़ती आर्थिक दर्दशा साफ़ दिख रही है. गांव हो या शहर, बढ़ती गरीबी से बेहाल दिखने लगे हैं. सीएसडीएस की ओर से कराए गए पिछले डेढ दशकों के ( 2005-2019) अध्ययनों के मुताबिक, मुश्किल से दस फीसदी लोगों ने माना कि मौजदा कमाई से उनकी ज़रूरतें पूरी हो पा रही हैं और वे कुछ बचत भी कर रहे हैं. तरह की आर्थिक दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. कुछ को कम तो कुछ को ज्यादा. लॉकडाउन में अब छूट देने की ज़रूरत इन आंकड़ों से यह साफ़ है कि सिर्फ दस से बारह फ़ीसदी भारतीय ही लगातार बचत कर रहे हैं. कुछ दूसरे लोगों की भी बचत हो जाती है लेकिन यह उनकी इनकम या सैलरी स्ट्रक्चर की वजह से संभव हो पाता है.


जिन लोगों के पास ऐसी बचत है वो तो इस मुश्किल घड़ी में इसका सहारा ले सकते हैं. लेकिन जिनके पास पीएफ़ जैसी बचत का भी सहारा नहीं है उनके पास व्यवस्था के खिलाफ़ आवाज़ उठाने के अलावा कोई और चारा नहीं है. लिहाज़ा मेरा यह मानना है कि सरकार को अब लॉकडाउन को शिथिल कर देना चाहिए ताकि आर्थिक गतिविधियां शुरू हो सकें.


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