निरकुंशता के ‘मोनोलॉग’ का लोकतांत्रिक जवाब है नेहरू का विमर्श

उमेश त्रिवेदी - लेखक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है। - साभार दैनिक समाचार पत्र सुबह सवेरे  राजनीतिक बदजुबानी और बदगुमानी के इस दौर में, जबकि आजादी की लड़ाई में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले हमारे पुरखों की ऐतिहासिक विरासत की इबारत में जहर घोलने की कोशिशें परवान पर हैं, जवाहरलाल नेहरू की राष्ट्रीय पुण्याई का सस्वर, समवेत  पुनर्पाठ अपरिहार्य होता जा रहा है। सारे भारतवासियों को, जो राष्ट्र निर्माण में जवाहरलाल नेहरू के सकारात्मक योगदान से मुतमईन है, उन सभी अवसरों पर नेहरू की जय गाथा का सहस्त्र गान करना चाहिए, जो उनकी स्मृतियों से जुड़े हैं। नेहरू के प्रसंगों को ताजा करते रहना न सिर्फ लोकतांत्रिक राजनीति की शुचिता और सहिष्णुता के लिए जरूरी है, बल्कि आजादी के उन ऐतिहासिक पन्नों की रक्षा के लिए भी जरूरी है, जिन्हें नफरत की काली स्याही पोती जा रही है। देश में लोकतंत्र की उम्मीदों के खिलाफ एक सुविचारित और षडयंत्रकारी सिलसिले के इस दौर में आजादी की विरासत के रूप में संविधान और संवैधानिक संस्थाओं को राजनीतिक कलुषता और कटुता से अक्षुण्ण रखने के लिए नेहरू पर छोटे-बड़े विमर्श की निरन्तरता वक्त का तकाजा है। इसलिए जरूरी है कि नेहरू की छप्पनवीं पुण्यतिथि पर हम सब मिलकर उनके राष्ट्रीय योगदान को शिद्दत से याद करें। राष्ट्र निर्माण के क्षेत्र में उनका योगदान बहुआयामी है। कोरोना महामारी के मौजूदा संकट में जब हम देश की मौजूदा परिस्थितियों का आकलन करते हैं तो समझ आता है कि देश की साधनहीन गरीब जनता के स्वास्थ्य को लेकर उनकी चिंताओं का दायरा कितना व्यापक और गहरा था। नेहरू दवा उद्योग को सार्वजनिक क्षेत्र में ही रखना चाहते थे, ताकि गरीबों को सस्ती दवाएं उपलब्ध हो सके। वो इसे सरकार की जिम्मेदारी मानते थे। जनता को विदेशी दवा कंपनियों के शिकंजे से बचाने के लिए इंडियन ड्रग्स एंड फार्मास्युटिकल लिमिटेड (आईडीपीएल) और हिन्दुस्तान एंटीबॉयोटिक जैसी नवरत्न कंपनियों को खड़ा करने का काम नेहरू ने ही किया था। हिन्दुस्तान एंटीबॉयोटिक कंपनी पेनीसीलिन, स्ट्रेप्टोमाइसिन, जेन्टामाइसिन और एमॉक्ससीलिन जैसी एंटीबॉयोटिक दवाओं का व्यापक उत्पादन करके विदेशों पर भारत की निर्भरता को कम किया था। नेहरू के बाद लंबे समय तक देश की सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां बड़े पैमाने पर बल्क ड्रग्स बनाती थी। मौजूदा दौर में इन दवाइयों का 65 से 85 प्रतिशत आयात चीन से हो रहा है। कोरोना महामारी के महासंकट के इस दौर में यदि भारत मजबूती के साथ खड़ा है तो इसमें जवाहरलाल नेहरू के सोच और योगदान को नजरअंदाज करना मुश्किल है। आजादी के पहले एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में और आजादी के बाद एक राष्ट्र निर्माता के रूप में देश, काल और परिस्थितियों की उनकी विलक्षण समझ के कारण ही आज भारत वहां खड़ा है, जहां सारी दुनिया उसका इस्तकबाल कर रही है। तथ्यों और परिस्थितियों को अनदेखा करके सियासत के चश्मों से नेहरू की हस्ती और हैसियत का जो मूल्यांकन हो रहा हैं, वो सत्यता और तार्किकता की कसौटी पर कतई खरा नहीं है। दिलचस्प यह है कि नए भारत के निर्माण का आह्वान करने वाले मौजूदा भाजपा सरकार के कर्णधार ही उस बुनियाद को नकारने की कोशिश कर रहे हैं, जिस पर वो खड़े होकर राजनीतिक दंभ का उद्घोष कर रहे हैं। यहां यह सवाल मौजूं है कि नेहरू की समझदारी पर कैफियत मांगने वाले सभी लोग, चाहे वो प्रधानमंत्री मोदी हों अथवा गृहमंत्री अमित शाह, उन सवालों की राहों से गुजरे है, जो राष्ट्र निर्माण की बुनियाद से जुड़े हैं। भारत नेहरू की नस-नस में रचा-बसा था, शायद इसीलिए उन्होंने अपनी वसीयत में यह मार्मिक ख्वाहिश जाहिर की थी कि उनकी मौत के बाद उनके अवशेषों अथवा उनकी राख भारत के खेतों में बिखेर दी जाए। जहनीतौर पर नेहरू ने भारत की अपनी सकंल्पनाओं का शब्दांकन अपनी किताब ’भारत की खोज’ में किया था। ’भारत की खोज’ याने ’डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ का रचना-काल अप्रेल-सितम्बर 1944 है, जबकि वो अहमदनगर जेल में कैद थे। किताब में नेहरू ने सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर भारत की आजादी तक विकसित भारत की बहुआयामी समृद्ध संस्कृति, धर्म, और अतीत की जटिलताओं का वैज्ञानिक विश्‍लेषण किया है। आजादी के पहले ‘भारत की खोज’ के जरिए ओजपूर्ण अतीत कोर शब्दों में ढालने के बाद नेहरू ने राजनीति के व्यवहारिक धरातल पर उस भारत अथवा इंडिया को ’रि-इन्वेंट’ किया, जो आज दुनिया के सामने है। अथवा नए इंडिया के रूप में जिसका बखान करते हुए आज के सत्ताधीश थक नहीं रहे हैं। नेहरू की विलक्षणताओं को नकारने से पहले उनके विरोधियों को इस सवाल का जवाब भी देना होगा कि क्या नेहरू के बिना भारत वैसा लोकतांत्रिक देश बन पाता, जैसा कि वो आज है? उनके आलोचक भाजपा नेताओं को सोचना चाहिए कि उसी लोकतांत्रिक व्यवस्था की बदौलत ही उनकी यह हस्ती और हैसियत बनी है कि वो नेहरू पर सवाल खड़ा कर पा रहे हैं। आजादी की पौ फटने के बाद उगे हम जैसे तटस्थ हिंदुस्तानियों के लिए यह नामुमकिन है कि वह उन पंडित जवाहरलाल नेहरू को ,जिन्हें उनका समूचा बचपन चाचा नेहरू के नाम से जानता और दुलारता रहा है, बदनामी के उन तौर-तरीकों या बोझिल और बेहया हर्फो के साथ याद करे, जो आजकल सुनियोजित तरीके से सोशल मीडिया पर ट्रोल होते रहते हैं। आधुनिक भारत के निर्माता और स्वप्नद्दष्टा के रूप में नेहरू के योगदान को खारिज करना संभव नहीं है। आजादी के आंदोलन की ऐतिहासिक धरोहर के रूप में महात्मा गांधी के बाद जवाहरलाल नेहरू ही वह शख्सियत हैं, जो देश के जन मानस के मर्म में रचे-बसे हैं। विभाजन की घडियों के बीच आजादी के सुलगते क्षणों में नेहरू ने स्वतंत्र भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था का जो आविष्कार किया, वह सदियों पुराने देश की सभी परम्पराओं की सार्थकता को रेखांकित करने वाला है। देश, संस्कृति और समाज को नई दिशा देने वाले इस महानायक की मूरत लोगों के जहन में सजीव है। नेहरू द्वारा स्थापित लोकतंत्र के प्रतिमानों को तोड़ना-बदलना अथवा ’रिजेक्ट-सिलेक्ट’ करना मुश्किल काम है। मनुष्य जहन न तो किसी की राजनैतिक बपौती है, ना ही कोरी स्लेट है, जिस पर बनने वाले अक्स सत्ताधीशों की मर्जी के मुताबिक बने, मिटे अथवा उभरें...आप कागजों पर लिखी इबारत बदल सकते हैं, जहन में बनी तस्वीर नहीं...आप वर्तमान को अपने अनुसार ढाल सकते हैं, अतीत को नहीं...। नेहरू को इतिहास से ओझल करने अथवा बेदखल करने के प्रयास अथवा बदनाम करने की साजिशें लोकतंत्र को विद्रुप करने वाले कृत्य हैं। देर सबेर लोग इसे समझेंगे भी और इस पर ’रिएक्ट’ भी करेगें। वर्तमान में जब देश की विदेश नीति भ्रम-जाल में फंसी है, ज्यादातर पड़ोसी देशों से हमारे रिश्तों में कसैलापन बढ़ता जा रहा है, नफरत के अंगारे राजनीति की तहजीब बनते जा रहे हैं, अनिश्‍चितता और दुविधा का बोलबाला है, लोकतांत्रिक और संवैधानिक संस्थाओं का अवमूल्यन होता जा रहा है, निरंकुशता लोकतंत्र का पर्याय बनती जा रही है, जवाहरलाल नेहरू की याद समुन्दर के अंधेरे थपेड़ों में लाइट हाउस के रूप में प्रेरणा देती रहेगी...। 


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