प्रवासी मज़दूर संकट: क्या खाने-पीने की कमी से दंगे भी हो सकते हैं? क्या कर रही है सरकार?


बिहार के कटिहार रेलवे स्टेशन पर प्रवासी कामगारों के बीच खाने के पैकेट्स के लिए छीना झपटी, पंजाब के लुधियाना में प्रवासी कामगारों का विरोध प्रदर्शन और मध्य प्रदेश महाराष्ट्र सीमा पर खाने की कमी को लेकर अशांति का माहौल. ये कुछ चुनिंदा मामले नहीं हैं जिनमें प्रवासी कामगारों का गुस्सा फूटते हुए दिख रहा है. विशेषज्ञों ने दी चेतावनी स्टैंडिंग कमिटी ऑफ़ इकोनॉमिक स्टैटिस्टिक्स के चीफ़ प्रणब सेन ने कुछ हफ़्ते पहले ही चेतावनी जारी की थी. उन्होंने कहा था, "अगर प्रवासी कामगारों की खाने-पीने से जुड़ी ज़रूरतें पूरी न हुई तो वो हो सकता है जो इस देश में पहले हुआ है. हमारे यहां सूखे या अकाल के दौरान खाने पीने के सामान को लेकर दंगे हुए हैं. अगर खाने-पीने का सामान उपलब्ध नहीं कराया गया तो ये दोबारा हो सकते हैं. इसे लेकर स्पष्टता होनी चाहिए."


नोटबंदी की मार जारी इन प्रवासी कामगारों की आर्थिक क्षमता का आकलन इस बात से किया जा सकता है कि इनमें से ज़्यादातार लोगों ने अपनी आख़िरी तनख़्वाह या कमाई मार्च के शुरुआती हफ़्तों में की थी. लेकिन लॉकडाउन के महीने भर बाद जो लोग अपने गाँवों के लिए निकल रहे हैं, उनके पास इतना पैसा नहीं है कि वे आने वाले दिनों में खाना खा सकें. एक तरह से ये लोग बिन-बुलाए मेहमान के रूप में अपने सगे-संबंधियों के पास जा रहे हैं. ऐसे में ये समझना ज़रूरी है कि आने वाले दिन इन लोगों के लिए क्या लेकर आने वाले हैं.पलायन का सामाजिक पहलू 80 के दशक में पहाड़ों से उतरकर दिल्ली आए एक ऑटो चालक राम जी ने बीबीसी को अपनी मानसिक व्यथा बताई है. वो कहते हैं, "शुरुआत में उनके पास कुछ पैसा था. लेकिन बीते दो महीने से खाली बैठने की वजह से उनके पास अब मात्र तीन हज़ार रुपये बचे हैं. और मकान मालिक भी किराया मांगने आ रहा है. ऐसे में अब उनके पास दो विकल्प है. पहला उधार लेकर किराया देना और दूसरा गाँव जाना." राम जी कुछ हद तक अपने को सफल भी मानते हैं. अब उनकी बस एक ख़्वाहिश है कि उनकी एक बेटी और एक बेटा ठीक से पढ़ाई कर लें तो वे एक सफल व्यक्ति के रूप में अपने गाँव लौटें. वो कहते हैं, "हम निकल जाएंगे, मर जाएंगे. जैसे भी होगा. हम निकल जाएंगे, बच्चों को लेकर. क्या क्या बताएं. यहां से भगा दिया, फिर वहां से भगा दिया. हम अंबाला से आ रहे हैं. छह दिन हो गए चलतेचलते. किसी की टूटी हुई साइकिल ली थी." इन प्रवासी कामगार को रोता देखकर आसपास खड़े दूसरे कामगारों की आंखें भी नम हो जाती हैं. इन जैसे लाखों प्रवासी कामगारों के सामने इस समय सबसे बड़ा संकट कोरोना वायरस नहीं भूख है.


क्यों पैदा हो सकता है खाने-पीने का संकट? सालों तक दिल्ली में पत्रकारिता करने के बाद बिहार के पूर्णियां ज़िले में खेती किसानी कर रहे गिरींद्र नाथ झा मानते हैं कि इन शहरों से आए इन लोगों के सामने कमाने-खाने का संकट जारी है. वो कहते हैं, "मैं कई ऐसे लोगों से मिल चुका हूँ जो कि बड़े शहरों में काम करते थे और संकट के दिनों में अपने गाँव वापस आए हैं. लेकिन ये लोग सिर्फ ईंट-मिट्टी गारा ढोने वाले मज़दूर नहीं हैं. ये स्किल्ड लेबर की कैटेगरी में आते हैं. ये वो लोग हैं जो एक तरह से शहर को चलाते हैं. अब सवाल ये है कि इन लोगों के लिए गाँवों में किस तरह का रोज़गार पैदा हो सकता है?"


क्या कर रही है सरकार? सरकार की ओर से कई कदम उठाए गए हैं. लेकिन इनमें वे कदम शामिल नहीं हैं जो सड़क पर चल रहे इन प्रवासी कामगारों को तत्काल मदद पहुंचा सकें. ये शख़्स कहते हैं, "शहरों से आए कुछ लोगों ने मनरेगा के तहत काम भी कर लिया. लेकिन उन्हें अब तक तनख्वाह नहीं मिली है. और जाने कब मिलेगी. क्योंकि उनके जॉब कार्ड बनने में कई तरह की दिक्कतें आ रही हैं." रवीश रंजन शुक्ल भी इसी समस्या की ओर इशारा करते हैं. इसके साथ ही प्रधानमंत्री आवास योजना, राशन देने की व्यवस्था और रेहड़ी वालों के लिए कर्ज़ आदि से जड़ी योजनाओं को अमल में आने में कई हफ़्तों से महीनों लग सकते हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि सरकार इन प्रवासी कामगारों की मदद के लिए तत्काल कदम क्यों नहीं उठा रही है. बीते काफ़ी समय से इस तरह के आदेशों की वजह से कामगार पुलिस की लाठी खाने और रेल पटरियों से होकर गुज़रने को मजबूर हो रहे हैं.


क्या दंगे भड़क सकते हैं? भारत एक ऐसा देश है जो बीते कई दशकों से अनाज के मामले में सरप्लस में चल रहा है. इसके मायने ये हैं कि सरकारी गोदामों में इतना अनाज भरा हुआ है कि एक लंबे समय तक खाद्दान्न आपूर्ति की जा सकती है. अर्थशास्त्री ज़्यां द्रेज़ ने अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस में खाने-पीने के सामान में कमी नहीं होने की बात कही थी. हए और अधिक मात्रा में अनाज खरीदेगी. राष्ट्रीय आपदा के समय इस भंडार के एक हिस्से का इस्तेमाल करना ही समझदारी होगी." देशभर में कई जगहों पर दस किलो की बोरी में तीन किलो राशन निकलने से जुड़ी ख़बरें सामने आ चुकी एक सर्वे में सामने आया है कि देश की राजधानी दिल्ली में सिर्फ 30 फ़ीसदी राशन की दुकानें राशन दे रही आने वाले दिनों पर बात करते हुए रवीश कहते हैं कि सवाल इस बात का है कि जिसने जीवन भर पानीपूरी और चाट बनाना सीखा है, वो अचानक से गड्ढा खोदना कैसे शुरू कर सकता है. और शहर से आए इन कामगारों को इनके रिश्तेदार कितने दिन तक ख़ुशी-ख़ुशी खाना खिला पाएंगे?


Popular posts
बैतूल पाढर चौकी के ग्राम उमरवानी में जुआ रेड पर जबरदस्त कार्यवाही की गई
Image
रायसेन में डॉ राधाकृष्णन हायर सेकंडरी स्कूल के पास मछली और चिकन के दुकान से होती है गंदगी नगर पालिका प्रशासन को सूचना देने के बाद भी नहीं हुई कोई कार्यवाही
मनरेगा के तहत आथिक.विकास को ठेंगा दिखा रही पंचायती राज व्यवस्था 
Image
भगवान पार ब्रह्म परमेश्वर,"राम" को छोड़ कर या राम नाम को छोड़ कर किसी अन्य की शरण जाता हैं, वो मानो कि, जड़ को नहीं बल्कि उसकी शाखाओं को,पतो को सींचता हैं, । 
Image
बैतुल के पूर्व विधायक एंव वरिष्ट कांग्रेसी नेता श्री विनोद डागा जी का निधन
Image