(अंकित दुबे)
राष्ट्रनिर्माताओं का दिन मज़दूर दिवस
आज 1 मई है मज़दूर दिवस, मज़दूर जो कि मजबूर नहीं राष्ट्र निर्माता हैं। किसी भी देश के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका हमेशा से ही मज़दूर की होती है आखिर वही है जो एक कच्चे प्रारूप को जनता के उपयोग में आने के आकार में परिवर्तित करता है। मज़दूर जिसका नाम मन मे आते से ही हमारे अंदर एक साधारण से कपड़े पहने हुए मेहनतकश व्यक्ति की छवि उबर आती है।
मज़दूर का सही अर्थ बहुत व्यापक और विशाल है। हर वह व्यक्ति जो देश को चलाने के लिए किसी भी प्रकार की अपनी मेहनत का योगदान की आहुति देता है वह मज़दूर है । सिर्फ निर्माण श्रमिक ही मज़दूर नहीं अपितु जो लोग सेल्समैन है, कॉल सेंटर कर्मी एवं अन्य लोग जो अपनी मेहनत, शारारिक एवं मानसिक से राष्ट्र निर्माण का योगदान दे रहे हैं।
मज़दूर सदैव से ही अपनी मेहनत से खुद का पेट पालने और राष्ट्र निर्माण में संलग्न है तथा अपने वास्तविक अधिकारों को हासिल करने के लिए प्रयासरत है। पहले और आज के वक़्त में भी मज़दूरों की मांगे बहुत कम, साधारण और जायज़ है जो कि आज तक कोई भी सरकार उनको दिलवा नहीं पाई है। एक पारश्रमिक जो उनकी मूलभूत सभी सुविधाओं की पूर्ति करे, जीवन का आम लोगों जैसा स्तर और काम में न्यायोचित व्यवस्था। आज भी नियोक्ता मज़दूर को अपनी जरूरत के हिसाब से रखता है उसका अधिकतम शोषण करता है मज़दूर की तकलीफ का एहसास नियोक्ता और सरकार दोनों को नहीं है। चुनाव आते हैं तो मज़दूरों के लिए चित परिचित लुभावने वादे और योजना अपना अस्तित्व प्रकट करने एकदम से अवतरित हो जाती है तथा वोट के ठेकेदारों को प्रत्याशी पैसा, राशन, शराब एवं अन्य व्यवस्था तात्कालिक कर मज़दूरों का वोट प्राप्त करते हैं।
अभी हाल ही में कोरोना महामारी की वजह से जो लॉकडाउन हुआ, देश के करोङो मज़दूर भूखे प्यासे, जान का जोखिम लेते हुए पैदल चलकर अपने घर वापस जाते हुए हम सब ने देखे। यह पलायन आज़ादी के वक़्त के बाद से सबसे बड़ा शताब्दी का पलायन था, काऱण भी स्पष्ट था कि अगर मज़दूर पलायन नहीं करते तो भूख से मर जाते। मज़दूरों ने अपनी मेहनती फितरत के हिसाब से भूख से मारने के बदले जान का जोखिम लेते हुए पैदल घर जाने का फैसला लिया। सरकार बहादुर यहाँ भी फिसड्डी साबित हुई, लॉकडाउन तो घोषित हुआ मगर आम लोगो की सुविधाओं के लिए ही नीतियाँ बनाई गई मज़दूर इस बार फिर हमेशा की तरह सरकार की अनदेखी का शिकार हुए। कितने घर पहुँचे, कितने मृत्यु के गाल में समा गए औऱ कितने अभी भी फॅसे है इसकी कोई सांख्यकी नहीं ना ही कोई ठोस कार्यक्रम इनको सुरक्षित करने का शायद यह सबसे विभत्स चेहरा है आज के बाज़ारवादी युग का। हम लोग इन राष्ट्र निर्माता मज़दूर को खाली पड़ी सरकारी इमारतों में पनाह, देखरेख और भोजन देने में भी पूरी तरह सफल नहीं हो पाए, यह नाकामी हमारी व्यवस्था और हमारी सामाजिक प्राथमिकताएं दोनों की है।
मज़दूर का मजबूर होना ही अकेला अभिशाप नहीं बल्कि मज़दूरों का अशिक्षित, गरीब, अस्वस्थ एवं सबसे बड़ा कारण जागरूकता की कमी की वजह से मज़दूरों की दशा नहीं सुधरती।
आप और हम आज मज़दूर दिवस पर संकल्प ले कि यथासंभव जो हो सके इनके जीवन स्तर को सुधारने हेतु अपना थोड़ा सा योगदान अवश्य देंगे ठीक उसी तरह जैसे यह मज़दूर अपना सर्वस्व अर्पित करते हैं राष्ट्र निर्माण में।
यह मज़दूर नहीं राष्ट्र निर्माता हैं, मज़दूर दिवस की शुभकामनाएं।