ससमर्पण सप्रेम,सदैव रामनाममहाराजकी सहज शरणागति,

|| नाम- ताम- कथा -249 || रामनामाकंनायकम् सर्वसिद्धिविनायकम् । सर्वदोषादिपरित्रारायकम,प्रातःप्रणामायकम्।। रामनामाकंनम् विजयते।। गतांक से आगे:- । रामनामाकंयोगारूढेणविशुद्धमनोहंकारिताज्ञानारूढ़ वैराग्यवान,षटदोषा:निवर्तन्तेत्वेनः।। रामनामाकंन अर्थात ससमर्पण सप्रेम,सदैव रामनाममहाराजकी सहज शरणागति, ऐसे भक्तों को ज्ञान वैराग्य आदि की अनुभूति भीतर से जाग्रत होती हैं। ज्ञान प्राप्ति की प्यास होगी तो ज्ञान भी प्राप्त होगा पर उस ज्ञान का वितरण करना उतने ही उचित पात्र के समक्ष बखान करना यह भी प्रभुप्रेरित होता है। एक ज्ञान ग्रहण करने के लिए बाहर से गुरुदेव द्वारा ग्रहण किया जाता है। और एक भीतर से प्रभुकृपासे, रामनाममहाराजकी शरणमात्र से जाग्रत होता हैं। बाहर से हों या भीतर से जब तक पात्रता नहीं आजाती वो परम उच्च ज्ञान न उसको बाहर से प्राप्त होता हैं और न वो ज्ञान भीतर से जाग्रत हो पाता है। रामनामाकंन करते हुए श्रीरामनांहाराजकी शरण में सप्रेम भावमय होकर समर्पण करने पर भी जब तक अन्तःकरण में ज्ञान पिपासा जाग्रत नहीं होजाती तब तक उच्च-कोटि का ज्ञान उस घट में प्रकट नहीं हो पाता, फिर भले ही साधक के रामनामाकंनसे रामनामानुराग के प्रभाव से ब्रह्मा स्वयं भी समक्ष प्रकट हो जाये, या साक्षात्कार में स्वयं देवगुरू वृहस्पति ही समक्ष प्रकट होकर अपना सानिध्य प्रदान करदें। परंतु जब ज्ञान की पीपासा भी हों, और रामनामाकंन करते करते रामनामानुरागसे वैराग्य को उपलब्ध हो जाये तो साधक को कहीं भी जाना आना नहीं होता, किसी सदगुरू की तलास नहीं करनी होती, बल्कि वह स्वयं सदगुरू उसके पास आजाते हैं। जैसे विवेकानन्द को रामकृष्ण, महाराज जनक को अष्टावक्र, और भगवानराम को गुरूदेव वशिष्ठ स्वयं मिले हैं। वैसे ही, जो भी साधक सप्रेम ससमर्पितभावसे रामनाममहाराज की शरण गये हैं उनको भी किसी गुरु देव की खोज नहीं करनी पड़ी, बल्कि स्वयं गुरु देव ने उनको खोज लिया, कारण सदगुरू भी स्वयं सच्चे योग्य शिष्यों की सदा तलास में रहते हैं। रामनाम महाराज तो अपनी शरणमें लेने वाले को कैवल्य उपलब्ध कराते हैं ,तो यह भी निश्चित हैं कि, सात करोड़ मंत्र को कि,एक से बढ़कर एक सिद्धि प्रदायक, विश्वविजेता बनने जैसे वरदायक मंत्रों को छोड़ कर सहज सरल, असिद्धिप्रदायक रामनाममहाराज की शरण सहज ही कोई ग्रहण नहीं करता बल्कि उसके विगत जन्मों के सुसंस्कारों के फलस्वरूप उसमें रामनांहामंत्र के प्रति विलक्षण आकर्षण जाग्रत होता हैं,तब वो रामनाम महाराजकी शरण ग्रहण करता हैं, तब रामनाममहाराजकी कृपासे उसे ज्ञानपीपासा जाग्रत होती हैं, और तब उसे निजधर्म अर्थात आत्मिक धर्म की अनुभूति होती है, और उसे विराग उत्पन्न होता, और वैराग से उसको ज्ञान व ज्ञान से उसको मुक्ति मिलती हैं। गोस्वामी जी ने संकेत दिया। धर्म ते विरती योग ते ज्ञाना। ज्ञान मोच्छप्रद वेद बखाना ।। तो ज्ञाननमुक्ति वेद वाक्य हैं। तो ससमर्पण रामनामाकंन, से वैराग्य जाग्रत होता है। और विराग जाग्रत होने पर जो अनुभव होने लगता हैं, उसमे रामनामाकंन योगी को यह प्रकट अनुभव में गुजरता हैं कि:- 1. इस असार संसार में कुछ भी स्थिर नहीं है। यहाँ जो कुछ भी हैं वो अनित्य हैं। अतः इसका अनुभव होते ही उसकी पकड़ भीतर से समाप्त हो जाती हैं। 2. संसार से बाधने वाली भावना मात्र उसकी विषयों के प्रति रूचि ही हैं, अतः समस्त विषय उसके लिए अरूचिकर हो जाते हैं। 3. यहां प्राणी मरने के लिए ही उत्पन्न होता हैं, और उत्पन्न होने के लिए ही मरता हैं, बस मात्र इसी क्रम को बनाये रखने में उसकी समस्त रूचि बनी रहती हैं, जब तक प्रभुकृपा नहीं हो जाती उसको रामनाम अरूचिकर लगता है।, हां अन्य मंत्रों की सिद्धि के लिए वो कठोर से कठोर साधना ,व धर्मकर्म को अपनाने से परहेज नहीं करेगा, परंतु रामनामकी शरण में तो वह तभी आपायेगा जब उसकी अन्य सांसारिक गतिविधियों से अरूचि जाग्रत हो जायेगी। 4. रामनामाकंन साधक को शनैः शनैः यह अनुभव में आजाता हैं कि, सभी भोग विनाशशील है एवं दुःख दायक हैं, अतः भोगों में रहते हुए भी उसका भीतर से वैराग होजाता हैं, और वो अपनी इस वृति को जग जाहिर नहीं होने देता, महाराज जनक जैसे,:- योग भोग मंह राखेऊ गोई! जब तक कोई उच्च गुरू जैसे समक्ष नहीं आ जाते उसके उस भाव को जान नहीं पाते। कारण उनकी जिवनी अति सहज होती हैं और ऎसे व्यक्ति समाज में रहते हुए भी समाज से भिन्न दिखाई नहीं देते। 5. रामनामाकंयोगी को रामनामानुराग जाग्रत होते ही यह प्रकट अनुभव में आजाता हैं कि, सुख केवल दुःख के लिए हैं, और जीवन मात्र मरण के लिए है। यह जगत का प्रकट स्वरुप है। पर जब तक रामनाममहाराज की कृपा नहीं होती इसको मानसिक रूप से सब जानते हुए भी आंतरिक रुप से ग्रहण नहीं कर पाते, क्योंकि अज्ञान की मोटी परत इसको कान मुँह,जिव्हा के कथन श्रवण से आगे की समझ में नहीं जाने देती। 6. रामनामाकंन योगी को जगत के सौन्दर्य से विमोह हो जाता हैं, फिर वो चाहे जैसा सौन्दर्य हों? स्त्री के सौन्दर्य के प्रति आकर्षण का महत्वपूर्ण कारण भी मोह ही हैं । तो साधक न तो मोहित होता हैं न निर्मोही होता हैं, बस वो सहज होता हैं। अतः उसके लिए दुःखों के कारण नहीं रह जाते। 7. रामनामाकंन से उत्पन्न ज्ञान से साधक की अनुभूति में आ जाता हैं कि, यह संसारका प्रवाह अज्ञानी की ही मुर्खता से चल रहा है। और अज्ञानी को ही घोर सुख दुःख होते हैं। 8. महात्मा बुद्ध ने एक ही वृक्ष के नीचे बैठ कर अंखण्ड मानसिक रामनाम जाप किया,तदुपरांत उनको जो ज्ञान हुआ तो उसके उपरान्त उनका कथन वही था जो कि, प्रत्येक रामनामशरणागत भक्तों ने कहा कि, यह संसार दुखों की नगरी हैं और यहाँ दुखों का कारण मात्र इच्छाएं हैं । यह इच्छाही सुख दुख का आभास उत्पन्न कराती है। 9. रामनामाकंन योगी की अनुभूति में यह सुस्पष्ट रूपसे आजाता हैं कि, यह जो सुख दुःख हैं ,यह न तो आत्मा को होते है और न ही देह को होते हैं, इनका संबंध तो मात्र अज्ञान के साथ ही हैं‌। अज्ञान के नष्ट होते ही इनका अनुभव किसीको नहीं होता हैं, अतः सप्रेम रामनाममहाराज की शरण में जाकर इतना प्रेम से रामनामाकंन करो कि, अज्ञान का नाश होकर ज्ञान जाग्रत हो जाये और जीवन मुक्ति का अनुभव हों। अतः कल हम रामनाम और रामनांहाराज की शरण में अनुभव होने वाले तथ्य """ ज्ञान से ही दुखो का नाश होता हैं, । पर चर्चा करेगें। जैसा कि, लिखाया गया बतायेगें। __9414002930 bk 8619299909 रामनामाकंन हेतु श्री राम नाम धन संग्रह बैंक अजमेर से सम्पर्क करें। जयति जय जय रामनामाकंनम् ।।


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