राजस्थान में लंबे समय से जारी सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी की अंतर्कलह और बढ़ गई है. लंबे समय से चल रही है सियासी जंग

अब पायलट के सामने बहुत कम विकल्प बचे हैं. क्या वे क्षेत्रीय दल की नींव डाल कर आगे बढ़ सकते हैं? हालाँकि राजनीति के जानकार ये कहते हैं कि राजस्थान की ज़मीन किसी तीसरे दल के लिए कभी उर्वरा नहीं रही.



राजस्थान में लंबे समय से जारी सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी की अंतर्कलह और बढ़ गई है. कांग्रेस ने सचिन पायलट से राज्य कांग्रेस के अध्यक्ष का पद छीन लिया है. साथ ही उनका उप मुख्यमंत्री पद भी चला गया है. जानकार कहते हैं कि अब पायलट के सामने बहुत कम विकल्प बचे हैं. क्या वे क्षेत्रीय दल की नींव डाल कर आगे बढ़ सकते हैं? हालाँकि राजनीति के जानकार ये कहते हैं कि राजस्थान की ज़मीन किसी तीसरे दल के लिए कभी उर्वरा नहीं रही. राजस्थान संकट: सचिन पायलट क्या अब वापस आने को तैयार नहीं हैं? कांग्रेस के सचिन अब क्या बीजेपी के लिए 'बल्लेबाजी करेंगे? कुछ लोगों का ये भी मानना है कि अब उनके लिए बीजेपी ही एक मकाम रह गया है. लेकिन इससे बीजेपी के भीतर समीकरण काफ़ी उलट-पुलट जाएँगे. राज्य में सत्तारूढ़ कांग्रेस की यह सियासी जंग तब खुले में सामने आ गई, जब सचिन पायलट अपने समर्थक विधायकों के साथ दिल्ली चले गए और विद्रोह का ऐलान कर दिया. उनके समर्थक मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को हटाने की मांग कर रहे थे. लेकिन इसके लिए कांग्रेस नेतृत्व तैयार नहीं हुआ. सत्तारुढ़ कांग्रेस ने सुलह सफ़ाई की कोशिश की, लेकिन इसमें कांग्रेस को सफलता नहीं मिली. कांग्रेस ने आक्रामक रुख अख्तियार करते हुए मंगलवार को सचिन पायलट को सभी ज़िम्मेदारीयो से मुक्त कर दिया. रास्ता तंग उनके साथ ही दो मंत्रियों- रमेश मीणा और विश्वेंद्र सिंह को भी बर्खास्त कर दिया गया है. जयपुर में सियासी घटनाक्रम पर नज़र रख रहे पत्रकार अवधेश अकोदिया कहते हैं, "पायलट के सामने रास्ता बहुत तंग रह गया है. अगर वो बीजेपी में जाते हैं, तो उनकी कितनी स्वीकार्यता होगी, यह देखने की बात होगी." अकोदिया कहते हैं कि सचिन पायलट बीजेपी के लिए तभी उपयोगी नेता हो सकते हैं, अगर वे कांग्रेस सरकार को धराशाई कर सकें. पायलट के समर्थक राज्य मे तीसरा घटक बनाने की बात भी कहते रहे हैं, लेकिन प्रोफ़ेसर संजय लोढ़ा कहते हैं कि राजस्थान में ऐसा प्रयास कभी सफल नहीं हुआ. राजस्थान में चल रहा सियासी ड्रामा आखिर क्या है, कब और कैसे शुरू हुआ?


लंबे समय से चल रही है सियासी जंग राजस्थान में कांग्रेस के भीतर यह सियासी जंग लंबे समय से चल रही थी. यह विधान सभा चुनावों से पहले ही शुरू हो गई थी. उस वक्त प्रत्याशी चयन में संगठन से अधिक व्यक्तिगत निष्ठा को परख कर उम्मीदवारी का फ़ैसला करने जैसी बातें होती रही. विधान सभा चुनाव प्रचार में भी कांग्रेस बँटी-बँटी सी नज़र आती थी. राजनीतिक विश्लेषक संजय लोढ़ा कहते हैं, "हम लोगों का आकलन था कि राज्य में कांग्रेस को 130 से 150 सीट मिल सकती हैं. लेकिन पार्टी ने आपस की लड़ाई में यह अवसर गँवा दिया. परिणाम आए, तो पार्टी 99 सीटों पर सिमट गई. जबकि राज्य में व्यवस्था विरोधी रुझान साफ़ दिख रहा था." राजस्थान की रेत में कमल खिलाने की कोशिश? फिर रिजॉर्ट की ओट


जातियों का समीकरण राज्य में गुर्जर आरक्षण आंदोलन के दौरान गुर्जर और मीणा समुदायों में फासला हो गया था और कुछ स्थानों पर दोनों समुदायों में यह कटुता खुल कर सामने आ गई थी. लेकिन उसके बाद काफ़ी कुछ बदल गया है. गुर्जर आरक्षण आंदोलन में अगुवाई करते रहे हिम्मत सिंह गुर्जर ने बीबीसी से कहा, "अब दोनों समुदायों में पहले जैसी ही निकटता है. पिछले चुनावों में दोनों ने एक दूसरे के उम्मीदवारों को वोट दिए हैं. वे कहते हैं कि राजेश पायलट इस एकता की धुरी बन कर उभरे थे. उनके रहते दोनों समुदाय एकमेव होकर काम करते थे.


कहाँ जाएगी ये जंग इस सियासी जंग में पायलट के साथ विश्वेंद्र सिंह और रमेश मीणा को भी अपने-अपने पद गवाने पड़े हैं. विश्वेंद्र सिंह भरतपुर के पूर्व राजपरिवार के सदस्य हैं. वे जाट समुदाय से हैं. विश्वेंद्र सिंह का ससुराल पक्ष गुर्जर समुदाय से है. पत्रकार अकोदिया कहते हैं कि सिंह और मीणा दोनों अपने-अपने क्षेत्रों में प्रभावशाली हैं, लेकिन राज्य के सियासी फलक पर उनकी ताक़त का अभी इम्तिहान होना बाकी है. सत्तारूढ़ कांग्रेस ने जातिगत समीकरणों की नज़ाकत समझते हुए शिक्षा मंत्री गोविंद सिंह डोटासरा को प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष नियुक्त किया है, वे जाट समुदाय से हैं. इसके साथ संगठन में कुछ और नियुक्तियाँ भी की गई हैं. इन नियुक्तियों में भी सामाजिक समीकरणों का ख्याल रखा गया है. राजस्थान में सत्ता और संगठन में यह लड़ाई लंबे समय से चल रही थी. कोटा में जब सरकारी अस्पताल में शिशुओं की मौत का मामला सामने आया, तो सचिन पायलट ने सरकार को घेरा था. ऐसे ही कुछ अन्य मामलों में सरकार और पायलट के स्वर अलगअलग सुनाई देते थे. प्रोफ़ेसर लोढ़ा कहते हैं कि सरकार में सामूहिक ज़िम्मेदारी का भाव कभी दिखाई नहीं दिया. इससे प्रशासन पर बुरा प्रभाव पड़ा. थार मरुस्थल में मानसून के बादलों का मिजाज रहा है कि वे थोड़े वक़्त के लिए आते हैं और बरस कर चले जाते हैं. लेकिन राज्य के सियासी फलक पर छाए बादल कब तक रहेंगे और किस घर-आंगन पर बरसेंगे और किस छत को सूखा छोड़ देंगे, अभी कहना


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